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________________ दशमी दशा हिन्दीभाषाटीकासहितम् / 427 मन तापस की प्रव्रज्या (भिक्षुत्व स्वीकार करने) से पूर्व अथवा प्रव्रज्या ग्रहण करने के अनन्तर सदैव देव-लोकों के कामोपभोगों में बिलकुल आसक्त हैं, वे इस अज्ञान के कारण असुर-कुमार या किल्बिष-देवों में उत्पन्न हो जाते हैं और फिर वहां से मृत्यु होने के पश्चात् मनुष्य-लोक में भेड़ के समान अस्पष्ट-वादी या गूंगे होकर उत्पन्न होते हैं और अनन्त समय तक अनादि संसार-चक्र में परिभ्रमण करने लगे हैं / अतः श्री श्रमण भगवान् महावीर स्वामी जी कहते हैं कि हे आयुष्मन ! श्रमण ! उस निदान कर्म का यह पाप-रूप फल हुआ कि उसके करने वाले की केवलि–भाषित धर्म में श्रद्धा ही नहीं रहती / अतः यह कर्म सर्वथा त्याज्य है / यद्यपि अन्य तीर्थक-जैनेतर मतों के मानने वाले लोगों में से बहुत से भुक्त-भोगी होकर पिछली अवस्था में ही प्रव्रजित होना श्रेष्ठ समझते हैं, सम्यग्दर्शन के अभाव से उनकी प्रव्रज्या अज्ञान-जनित कषायों को उत्पन्न करने वाली होती है, इसी लिए उनकी क्रियाएं उपर्युक्त रूप से वर्णन की गई हैं। . यहां हम इस बात का ध्यान दिलाना भी आवश्यक समझते हैं कि यदि ये छ: निदान कर्म इसी क्रम से किये जायं तभी सम्यक्त्व की प्राप्ति में बाधक हो कर उसकी प्राप्ति नहीं होने देते किन्तु यदि प्रकारान्तर से किये जायं तो उसकी प्राप्ति में किसी तरह की बाधा उत्पन्न नहीं करते, जैसा कि द्रौपदादि के विषय में प्रसिद्ध है / तथा यदि किसी ने यह 'निदान' किया कि मैं भवान्तर-दूसरे लोक या दूसरे जन्म में धनी हो जाऊं तो वह धनी होने के पश्चात् सम्यक्त्वादि की प्राप्ति कर सकता है किन्तु इन सब बातों में अन्तःकरण के अध्यवसायों-मन के संकल्पों-की ही विशेषता है / इसी प्रकार कृष्ण-श्रेणिक के विषय में भी जानना चाहिए / इस कथन का सार यह निकला कि जो कामासक्ति से निदान कर्म करता है उसको सम्यक्त्वादि की प्राप्ति में अवश्य बाधाओं का सामना करना पड़ता है, औरों को नहीं / अब सूत्रकार क्रम-प्राप्त सातवें निदान कर्म का वर्णन करते हैं :__ एवं खलु समणाउसो ! मए धम्मे पण्णत्ते / जाव माणुस्सगा खलु कामभोगा अधुवा, तहेव / संति उड्ढं देवा देवलोगंसि / णो अण्णेसिं देवाणं अण्णे देवे अण्णं देविं अभिमुंजिय परियारेंति, 1. णो अप्पणा चेव अप्पाणं वेउव्विय परियारेंति, अप्पणिज्जियाओ
SR No.004500
Book TitleDasha Shrutskandh Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherAatmaram Jain Dharmarth Samiti
Publication Year2001
Total Pages576
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_dashashrutaskandh
File Size11 MB
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