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________________ on दशमी -दशा हिन्दीभाषाटीकासहितम् / 425 // दूसरों के मत्थे मढ़ देते हैं और कहते हैं कि अहं ण हंतव्वो-मुझे मत मारो अण्णे हंतव्वा-दूसरों को मारना चाहिये अहं ण अज्झावेतव्वो-मुझे आदेश मत करो अण्णे अज्झावेतव्वा-दूसरों को आदेश करना चाहिए अहं ण परियावेयव्वो-मझको पीडित मत करो अण्णे परियावेयव्वा-दूसरों को पीड़ित करो अहं ण परिघेतव्वो-मुझे मत पकड़ो अण्णे परिघेतव्वा-दूसरों को पकड़ना चाहिए अहं ण उवद्दवेयव्वो-मुझे मत दुखाओ अण्णे उवद्दवेयव्वा-दूसरों को दुखाओ / इस प्रकार के प्राणातिपात, मृषापाद और अदत्तादान से जिनकी निवृत्ति नहीं हुई है और जो एवामेव-इसी तरह इत्थिकामेहिंस्त्री-सम्बन्धी काम-भोगों में मुच्छिया-मूच्छित हैं गढिया-बन्धे हुए हैं गिद्धा-लोलुप हैं और अज्झोववण्णा-अत्यन्त आसक्त या लिप्त हैं वे कालमासे-मृत्यु के समय कालं किच्चा-काल करके अण्ण-तराई-किसी एक असुराइं-असुर कुमारों के वा-अथवा किब्बिसियाइं-किल्बिष देवों (नीच जाति के अधम देवों की एक जाति) के ठाणाई-स्थानों में उववत्तारो भवंति-उत्पन्न होते हैं ततो-इसके बाद ते-वे विमुच्चमाणा-उस स्थान से छूट कर भुज्जो-पुनः-पुनः एल-मूयत्ताए-भेड़ के समान अस्पष्टवादी होकर अथवा गूंगेपन से पच्चायंति-उत्पन्न होते हैं / समणाउसो-हे आयुष्मान् ! श्रमण ! एवं खलु-इस प्रकार निश्चय से तस्स-उस णिदाणस्स-निदान-कर्म का जाव-यावत् यह फल होता है कि उसके करने वाले व्यक्ति में केवलि-पण्णत्तं-केवलि–भाषित धम्म-धमें में सद्दहिए-श्रद्धा करने की वा–अथवा विश्वास और रुचि करने की भी नो संचाएति-शक्ति नहीं रहती / - मलार्थ-उसकी जैन-दर्शन से अन्य दर्शनों में रुचि होती है, उस रुचि-मात्रा से वह इस प्रकार का हो जाता है जैसे ये अरण्य-वासी / तापस, पर्णकुटियों में रहने वाले तापस, ग्राम के समीप रहने वाले तापस और गुप्त कार्य करने वाले तापस जो बहु-संयत नहीं हैं, जो बहुत विरत। नहीं हैं और जिन्होंने सब प्राणी, भूत, जीव और सत्त्वों की हिंसा से सर्वथा निवृत्ति नहीं की और अपने आप सत्य और मिथ्या से मिश्रित भाषा का प्रयोग करते हैं और अपने दोषों का दूसरों पर आरोपण करते हैं, जैसे-मुझे मत मारो, दूसरों को मारो; मुझे आदेश मत करो, दूसरों को आदेश करो; मुझको पीड़ित मत करो, दूसरों को पीड़ित करो; मुझको मत पकड़ो, दूसरों को पकड़ो; मुझको मत दुखाओ, दूसरों को दुखाओ;
SR No.004500
Book TitleDasha Shrutskandh Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherAatmaram Jain Dharmarth Samiti
Publication Year2001
Total Pages576
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_dashashrutaskandh
File Size11 MB
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