________________ - दशमी दशा हिन्दीभाषाटीकासहितम् / 417 एयारूवाई-इस प्रकार के दिव्वाइं-दिव्य, देव-सम्बन्धी भोग-भोगाई-भोगने योग्य भोगों को भुंजमाणो-भोगते हुए विहरामो-विचरें / से तं-यही साधु-साधु-श्रेष्ठ है। मूलार्थ-ऊर्ध्व देव-लोकों में देव हैं। उनमें से एक तो अन्य देवों की देवियों को वश में करके उनको उपभोग में प्रवृत्त कराते हैं, दूसरे अपनी ! ही आत्मा से वैक्रिय रूप. बनाकर उनको उपभोग में प्रवृत्त कराते हैं, तीसरे अपनी ही देवियों को भोगते हैं | सो यदि इस तप, नियम का कुछ विशेष फल है तो हम भी आगामी काल में इस प्रकार के देव-सम्बन्धी / भोगों को भोगते हुए विचरें / यह हमारा विचार सर्वोत्तम है | शेष सब वर्णन पूर्ववत् ही जानना चाहिये ('यावत्' शब्द कितनी ही बार आ चुका है, यह पूर्व-वर्णन का सूचक है)। टीका-इस सूत्र में देवों के परिचार (मैथुन-क्रीड़ा) का विषय वर्णन किया है | कुछ देवता तो अन्य देवों की देवियों को अपने वश में करते हैं और वश में कर उनको मैथुन के लिये उद्यत कराते हैं / दूसरे अपनी आत्मा से वैक्रिय करके अर्थात् देवी की विकुर्वणा करके उनसे मैथुन करते हैं / इसका व्याख्यान टीकाकार इस प्रकार करते हैं-"आत्मनैवात्मानं स्त्रीपुरुषरूपतया विकृत्येत्यर्थः' अर्थात् अपनी ही आत्मा को स्त्री और पुरुष दो भिन्न आकृतियों में परिवर्तन करके काम-चेष्टा करते हैं / किन्तु 'भगवती' सूत्र मैं लिखा है कि एक ही समय में एक जीव दो वेदों-स्त्री पुरुष सम्बन्धी उपभोग की इच्छाओं का अनुभव नहीं कर सकता / सो इस विषय में परम्परा से यही प्रसिद्धि चली आती है कि पुरुष तो पुरुषलिङ्ग की विकुर्वणा-शारीरिक परिवर्तन करते हैं और उनकी आत्मीया देविया स्त्रीलिङ्ग की, और इस प्रकार वे परस्पर मैथुन-उपभोग में प्रवृत्त होते है हैं / यह तत्त्व बहुश्रुत-गम्य है / एक देव ऐसे हैं जो अपनी देवियों के साथ उक्त उपभोग कर सन्तुष्ट रहते हैं। देवों के इस प्रकार के स्वेच्छा-पूर्वक आनन्द-विहार को देखकर निर्ग्रन्थ और निर्ग्रन्थियों के चित्त में यह विचार उत्पन्न हुआ कि देव ही धन्य हैं / अतः यदि हमारे इस तप-नियम का कोई विशेष फल है तो हम भी भविष्य में इन्हीं देव-सम्बन्धी तीन प्रकार की काम-क्रीड़ाओं का उपभोग करते हुए विचरें / .