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________________ दशमी दशा हिन्दीभाषाटीकासहितम् / 415 आदि के मल वाले होते हैं और वंत-वात पित्त-पित्त सुक्क-शुक्र सोणिय-शोणित (रुधिर) से समुभवा-उत्पन्न हुए होते हैं दुरूव-कुत्सित उस्सास-उच्छवास और निस्सासा-निश्वास वाले होते हैं / दुरंत-दुष्परिणाम वाले मुत्त-मूत्र और पुरीस-पुरीष-विष्टा से पुण्णा-पूर्ण हैं वंतासवा-वमन के द्वार हैं पित्तासवा-इनसे पित्त गिरते हैं खेलासवा-श्लेष्म गिरती है पच्छा-मृत्यु के अनन्तर च-अथवा पुरं-बुढ़ापे से पहले णं-वाक्यालङ्कारे अवस्सं-अवश्य ही विप्पजहणिज्जा-त्याज्य हैं / मूलार्थ-हे आयुष्मन् ! श्रमण ! इस प्रकार मैंने धर्म प्रतिपादन किया है, यही मिर्ग्रन्थ-प्रवचन यावत्सत्य और सब दुःखों का नाश करने वाला है / जिस धर्म की शिक्षा के लिये उपस्थित होकर विचरता हुआ निर्ग्रन्थ (अथवा निर्ग्रन्थी) बुभुक्षा आदि यावत् काम-भोगों के उदय होते हुए भी संयम-मार्ग में पराक्रम करे और पराक्रम करते हुए मनुष्य-सम्बन्धी काम भोगों में वैराग्य को प्राप्त हो जाता है, क्योंकि वे अनियत हैं, अनित्य हैं और क्षणिक हैं, इनका सड़ना, गलना और विनाश होना धर्म है, इन भोगों का आधार-भूत मनुष्य-शरीर विष्ठा, मूत्र, श्लेष्म, मल, नासिका का मल, वमन, पित्त, शुक्र और शोणित से बना हुआ है / यह कुत्सित उच्छवास और निश्वासों से युक्त होता है, दुर्गन्ध-युक्त मूत्र और पुरीष पूर्ण है / यह वमन का द्वार है, इससे पित्त और श्लेष्म सदैव निकलते रहते हैं / यह मृत्यु के अनन्तर या बुढ़ापे से पूर्व अवश्य छोड़ना पड़ेगा / टीका-इस सूत्र में प्रकाश किया गया है कि निर्ग्रन्थ और निर्ग्रन्थियों ने मनुष्य-सम्बन्धी / काम-भोगों और मनुष्य-शरीर की अनित्यता का अनुभव किया और उससे उनको वैराग्य उत्पन्न हो गया / काम-भोगों के उदय होने पर उन्होंने विचार किया कि मनुष्य-सम्बन्धी काम-भोग और उनका आधार-भूत शरीर अनित्य, क्षणिक और विनाशी है / सड़ना, गलना और विध्वंस होना इसका स्वाभाविक धर्म है / यह मल, मूत्र, श्लेष्म, शुक्र और रक्त से बनता है / इस से दुर्गन्ध-मय निश्वास और उच्छवास निकलते ही रहते हैं / यह सदैव मूत्र और विष्ठा से पूर्ण रहता है / यह वमन का द्वार है / इससे श्लेष्म और . पित्त सदैव निकलते ही रहते हैं / यह सर्वथा त्याज्य है, चाहे इसे मृत्यु के अनन्तर छोड़ो
SR No.004500
Book TitleDasha Shrutskandh Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherAatmaram Jain Dharmarth Samiti
Publication Year2001
Total Pages576
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_dashashrutaskandh
File Size11 MB
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