________________ 412 दशाश्रुतस्कन्धसूत्रम् दशमी दशा. एवं खलु श्रमण ! आयुष्मन् ! निर्ग्रन्थी निदानं कृत्वा तत्स्थानमनालोच्य (ततः) अप्रतिक्रान्ता यावदप्रतिपद्य कालमासे कालं कृत्वान्यतरेषु देव-लोकेषु देवतयोपपत्ती भवति / सा तत्र देवो भवति महर्द्धिको यावन्महा-सौख्यः / सा च ततो देव-लोकादायुःक्षयेणानन्तरं चयं त्यक्त्वा य इमे भवन्ति उग्रपुत्रास्तथैव दारको यावत्किं ते आस्यकस्य स्वदते / तस्य नु तथाप्रकारस्य पुरुष-जातस्य यावत् अभव्यः स तस्य धर्मस्य श्रवणाय / स च भवति महेच्छो यावद्दक्षिण-गामिको यावद् दुर्लभ-बोधिकश्चापि भवति / एवं खलु यावत् प्रतिश्रोतुम् / पदार्थान्वयः-समणाउसो-हे आयुष्मन् ! श्रमण ! एवं खलु इस प्रकार णिग्गंथी-निर्ग्रन्थी णिदाणं-निदान-कर्म किच्चा-करके तस्स-उस ठाणस्स-स्थान पर अणालोइय-बिना उसके विषय में गुरु से आलोचना किये और उससे अप्पडिक्कंता-बिना पीछे हटे और जाव-यावत् अपडिवज्जित्ता-बिना प्रायश्चित्त ग्रहण किये कालमासे-मृत्यु के समय कालं किच्चा-काल करके अण्णयरेसु-किसी एक देवलोएसु-देव-लोक में देवत्ताए-देव-रूप से उववत्तारो-उत्पन्न भवति होती है सा णं-वह तत्थ-वहां महिड्डिए-महा ऐश्वर्य वाला जाव-यावत् महासुक्खे-महा सुख वाला देवे भवति-देव होती है सा णं-वह फिर ताओ-उस देवलोगाओ-देव-लोक से आउक्खएणं-आयुःक्षय होने के कारण अणंतरं-बिना किसी अन्तर के चयं-देव-शरीर को चइत्ता-छोड़ कर जे-जो इमे-ये उग्गपुत्ता-उग्रपुत्र भवंति-होते हैं तहेव-शेष वर्णन पूर्ववत् है अर्थात् उनमें से किसी एक के कुल में वह दारए-दारक (लड़का) होता है जाव-यावत् ते-आपके आसगस्स-मुख को किं-क्या सदति-अच्छा लगता है फिर तस्स-उस तहप्पगारस्स-उस प्रकार के पुरिस-जातस्स-पुरुष को जाव-यावत् यदि कोई श्रमण या श्रावक धर्म सुनावे तो वह सुन नहीं सकता क्योंकि से-वह तस्स-उस धम्मस्स-धर्म के सवणताए-सुनने के अभविए णं-अयोग्य होता है किन्तु से य-वह तो भवति-हो जाता है महिच्छे-उत्कट इच्छाओं वाला और दाहिणगामिए-दक्षिणा दिशा के नरक में जाने वाला तथा जाव-यावत् दुल्लभ-बोहिए यावि-दूसरे जन्म में दुर्लभ-बोधि वाला भवति–होता है / एवं खलु-इस प्रकार वह. निर्ग्रन्थी निदान-कर्म करके केवलि–भाषित धर्म को जाव-यावत् पडिसुणित्तए-सुनने के लिए भी समर्थ नहीं हो सकता /