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________________ - 400 दशाश्रुतस्कन्धसूत्रम् दशमी दशा परिग्रह वाली, अधार्मिक, दक्षिणगामी नारकी और भविष्य में दुलभि-बोधि कर्म के उपार्जन करने वाली हो जाती है / हे आयुष्मन् श्रमण ! इस प्रकार निदान कर्म का यह पाप-रूप-फल-विपाक होता है कि उसके करने वाली स्त्री में केवलि-भाषित धर्म सुनने की भी शक्ति नहीं रहती / टीका-इस सूत्र में निर्ग्रन्थी के किये हुए निदान कर्म का फल वर्णन किया गया है, जो निदान कर्म करती है वह किसी श्रमण या श्रावक का संयोग मिलने पर भी धर्म सुनने के लिये सावधान नहीं हो सकती, क्योंकि उसकी आत्मा धर्म-श्रवण से पराङ्मुख होकर केवल विषयानन्द की ओर ही दौड़ती है | उसके संकल्प महारम्भ और महा-परिग्रह में लगे रहते हैं / इसके कारण वह आगामी काल के लिए दुर्लभ-बोधि-कर्म की उपार्जना कर लेती है / मृत्यु के अनन्तर वह दक्षिण-गामिनी नारकिणी होती है / यह सब फल उस काम-वासना वाले निदान कर्म का ही होता है / अतः निदान कर्म सर्वथा त्याज्य है / शेष स्पष्ट ही है। अब सूत्रकार तीसरे निदान कर्म के विषय में कहते हैं: एवं खलु समणाउसो! मए धम्मे पण्णत्ते इणमेव निग्गंथे पावयणे जाव अंतं करेति / जस्स णं धम्मस्स सिक्खाए निग्गंथे उवद्विते विहरमाणे पुरादिगिच्छाए जाव से य परक्कममाणे पासिज्जा इमा इथिका भवति एगा एगजाया जाव किं ते आसगस्स सदति / जं पासित्ता निग्गंथे णिदाणं करेति / एवं खलु श्रमण ! आयुष्मन्, मया धर्मः प्रज्ञप्त इदमेव निर्ग्रन्थ-प्रवचनं यावदन्तं करोति / यस्य धर्मस्य निर्ग्रन्थः शिक्षायै उपस्थितो विहरन् पुराजिघित्सया गवत्स च पराक्रमन् पश्येदेषा स्त्री भवत्येकैकजाया यावत्किन्ते आस्यकस्य स्वदते यदृष्ट्वा निर्ग्रन्थो निदानं करोति / पदार्थान्वयः-समणाउसो-हे आयुष्मान् ! श्रमण ! एवं खलु-इस प्रकार निश्चय से मए मैंने धम्मे धर्म पण्णत्ते-प्रतिपादन किया है इणमेव-यही निग्गंथे-निर्ग्रन्थ पावयणे-प्रवचन जाव-यावत् सब दुःखों का अंतं करेति-अन्त करता है जस्स णं-जिस धर्म की है।
SR No.004500
Book TitleDasha Shrutskandh Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherAatmaram Jain Dharmarth Samiti
Publication Year2001
Total Pages576
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_dashashrutaskandh
File Size11 MB
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