________________ दशमी दशा हिन्दीभाषाटीकासहितम् / 387 यद्यस्य तपो-नियम-ब्रह्मचर्य-वासस्य तच्चैव यावत्साधु / एवं खलु श्रमणाः ! आयुष्मन्तः ! निर्ग्रन्थो निदानं कृत्वा तत्स्थानमनालोच्य (तस्मात्) अप्रतिकान्तः कालमासे कालं कृत्वान्यतरस्मिन् देव-लोकेषु देवतयोपपत्ता भवति / महार्द्धिकेषु यावच्चिरस्थितिकेषु स च तत्र देवो भवति महर्द्धिको यावच्चिर-स्थितिकः / ततो देव-लोकादायु:क्षयेण भव-क्षयेण स्थिति-क्षयेणा-नन्तरं चयं त्यक्त्वा य इम उग्र-पुत्रा महा-मातृका भोग-पुत्रा महा-मातृकास्तेषां न्वन्यतरस्मिन्कुले पुत्रतया प्रत्यायाति / पदार्थान्वयः-जइ-यदि इमस्स-इस तव-तप नियम-नियम बंभचेर-वासस्स-ब्रह्मचर्य-वास का तं चेव-पूर्वोक्त ही फल है जाव-यावत् साहु-ठीक है / समणाउसो-हे चिरजीवी श्रमणो! एवं खल-इस प्रकार निश्चय से निग्गंथे-निर्ग्रन्थ णिदाणं-निदान कर्म किच्चा-करके तस्स-उस ठाणस्स-स्थान का अणालोइय–बिना आलोचन किये हुए और उस स्थान से अप्पडिक्कते-बिना पीछे हटे कालमासे-मृत्यु के समान कालं किच्चा-काल करके देवत्ताए-देवत्व से उववत्तारो-उत्पन्न भवति-होता है / महड्ढिए-महाऋद्धि वाला जाव-यावत् चिरट्ठितिए-और चिर-स्थिति वाला देवे-देव भवति-होता है ततो-इसके अनन्तर देवलोगाओ-उस देवलोक से आउ-क्खएणं-आयु-क्षय के कारण अणंतरं-बिना अनन्तर के चयं-देव-शरीर को चइत्ता-छोड कर जे-जो इमे-ये उग्ग-पुत्ता-उग्रकुल के पुत्र हैं महा-माउया-महा-मातृक हैं भोग-पुत्ता–भोगपुत्र महा-माउया-महा-मातृक तेसिं णं-उनके अन्नतरंसि-किसी एक कुलंसि-कुल में पुत्तत्ताए-पुत्रत्व से पच्चायाति-उत्पन्न हो जाता है | मूलार्थ-यदि इस तप, नियम और ब्रह्मचर्य का पूर्वोक्त फल है यावत् वह ठीक है / हे चिरजीवी श्रमणो! इस प्रकार निर्ग्रन्थ निदान कर्म करके उस स्थान का बिनो आलोचना किये उससे बिना पीछे हटे मृत्यु के समय काल करके किसी एक देव-लोक में देवत्व से उत्पन्न हो जाता है | महर्द्धिक यावत् चिर-स्थिति वाले देवलोक में वह महर्द्धिक और चिर-स्थिति वाला देव हो जाता है / वह फिर उस देव-लोक से आयु, भव और स्थिति के क्षय होने के कारण बिना किसी अन्तर के देव-शरीर को