________________ . . 340 दशाश्रुतस्कन्धसूत्रम् दशमी दशा से सुसज्जित हो गया। फिर सकोरिंट वृक्ष के पुष्पों की माला-युक्त छत्र धारण कर चन्द्रमा के समान प्रिय-दर्शन वाला राजा जहां पर बाहर की उपस्थान-शाला थी, जहां पर राजसिंहासन था, वहीं पर आ गया। वहां आकर वह पूर्व दिशा की ओर मुंह कर उस श्रेष्ठ सिंहासन पर बैठ गया, बैठ कर उसने कुटुम्ब के (राज्याधिकारी) पुरुषों को बुलाया, बुलाकर वह उनसे इस प्रकार कहने लगाः टीका-इस सूत्र में संक्षेप से उपोद्धात दिया गया है। इसका विस्तृत वर्णन 'औपपातिकसूत्र' से जानना चाहिए। 'औपपातिकसूत्र' के उपाख्यान और इसमें इतना ही अन्तर है कि वहां नगरी का नाम चम्पा मगरी है और राजा का नाम कोणिक / किन्तु यहां नगर का नाम राजगृह और राजा का नाम श्रेणिक है। यहां पाठकों की सुविधा के लिए कुछ संक्षिप्त वर्णन हम दे देते हैं। इस अवसर्पिणी काल के चतुर्थ भाग के अन्तिम समय में राजगृह नाम का एक नगर था। वह अनेकानेक भवनों से अलंकृत और धन-धान्य से परिपूर्ण था। उस समय मगधदेश और राजगृह नगर के लोग अथवा सारे देश के लोग आनन्द-मय जीवन व्यतीत करते थे। नगर के बाहर की भूमि अत्यन्त रमणीय थी, जिसमें शालि, यव और इक्षु विशेष होते थे। नगर के प्रत्येक घर में गो आदि पशु विशेष रूप से पाले जाते थे। कोई गली ऐसी न थी जो अत्यन्त सन्दर और ऊँचे-२ भवनों से सशोभित न हो। राज्य का प्रबन्ध इतना अच्छा था कि सारे नगर में चोर और उत्कोचं (घूस) लेने वाले नाम-मात्र को भी न सुनाई देते थे। नगर में अनेक करोड़ाधीश थे। इसमें कई एक नाटक-मण्डलियां भी थीं, जो जनता की प्रसन्नता के लिए समय-समय पर उच्च और शिक्षाप्रद खेल दिखाया करती थीं। नगर चारों ओर से प्राकार से घिरा हुआ था। उसके चारों ओर धनषाकार खाई थी। खाई के बाहर फिर एक कोट था। प्राकार के चारों ओर दृढ़ द्वार और अतिनिबिड (घने) द्वार थे। __प्राकार का ऊपरी भाग चक्र, गदा, भुशुण्डी और शतघ्नी (तोप) आदि अनेक अस्त्र और शस्त्रों से सुसज्जित था। राज-मार्ग अत्यन्त विस्तृत और सदैव स्वच्छ रहता था। अनेक कला-कुशलों ने इसको सुन्दर बनाने में कुछ न छोड़ रखा था। नगर के द्वारों के कपाट इन्द्र-कीलों से जटित थे। वहां के लोग व्यापार-निपुण और शिल्प-कला-कुशल