________________ - - . . नवमी दशा हिन्दीभाषाटीकासहितम् / / 331 अतिरिक्त ये चित्त की मलिनता को बढ़ाने वाले भी होते हैं / अतः श्री भगवान् आज्ञा करते हैं कि इनको छोड़ साधु आत्म-गवेषक अथवा आप्त-गवेषक होता हुआ संयम में लीन हो जाय जिससे परिणाम में संसार-चक्र से मुक्ति मिलेगी / - अपनी आत्मा को अपने आप में देखने की इच्छा करने वाला आत्म-गवेषक कहलाता है और श्री तीर्थङ्कर देव आदि की आज्ञानुसार क्रिया करने वाला आत्म-गवेषक कहलाता है / कहने का तात्पर्य इतना ही है कि मोह आदिक कर्मों के बन्धन से छुटकारा पाने के लिए उक्त तीस दोषों का त्याग कर आत्म-स्वरूप में प्रविष्ट होने का प्रयत्न करना चाहिए / अब सूत्रकार साधुओं को और उपदेश करते हैं : जंपि जाणे इत्तो पुव्वं किच्चाकिच्चं बहु जढं / : तं वंता ताणि सेविज्जा जेहिं आयारवं सिया / / यदपि जानीयादितः पूर्वं कृत्याकृत्यं बहु त्यक्त्वा / तद् वान्त्वा तानि सेवेत यैराचारवान् स्यात् / / पदार्थान्वयः-इत्तो पुव्वं-दीक्षा से पूर्व जंपि-जो कुछ बहु-बहुत से किच्चाकिच्चं-कृत्य और अकृत्य को जाणे-जानता हो उनको जढं-छोड़कर और फिर तं-उनको वंता-वमन कर ताणि-उन जिन-वचनों को सेविज्जा-सेवन करे जेहिं-जिनसे आयारवं-आचारवान् सिया-हो जावे | / मूलार्थ-दीक्षा से पूर्व जो कुछ भी कृत्याकृत्य जानता हो उनको छोड़ कर और अच्छी प्रकार से वमन कर जिन-वचनों को सेवन करे, जिससे आचारवान् हो जावे | टीका-यह सूत्र भी उपदेश-रूप ही है / जब कोई साधु दीक्षा ग्रहण करता है तो उसको अच्छी तरह जानना चाहिए कि इससे पूर्व किये हुए जितने भी व्यापार आदिक कृत्य तथा अनाचारादि, न करने योग्य, अकृत्यों को छोड़कर ही दीक्षा ग्रहण की जाती है / क्योंकि जब तक कोई गृहस्थ में रहता है तब तक उसको अनेक प्रकार के कृत्याकृत्यों में लिप्त रहना पड़ता है / किन्तु दीक्षा ग्रहण करने के अनन्तर उसको यह