________________ ही नवमी दशा . हिन्दीभाषाटीकासहितम् / 325 - - पाने के लिए स्वयं भी रोगी बन जाता है / उसका चित्त सदैव मलिन होता है / पाप सदैव उसके चित्त को घेरे रहता है / इन कार्यों से वह अपने लिए भवान्तर में अबोध-भाव के कारण एकत्रित करता है / क्योंकि संसार में धर्म-प्राप्ति केवल आर्जव (ऋजुता-साधारणता) और मार्दव (दूसरों के प्रति अच्छे बर्ताव) से ही होती है, न कि छल और कपट से / इस प्रकार छल करने से एक तो वह अपनी आत्मा के लिए अबोध-भाव एकत्रित करता है और दूसरे महा-मोहनीय कर्म के बन्धन में भी आ जाता है / इनके साथ ही साथ ग्लान की सेवा न करने से श्रीभगवान् की आज्ञा की विराधना भी करता है, क्योंकि भगवान् की आज्ञा है कि ग्लान की सेवा करना प्रत्येक का कर्तव्य होना चाहिए, जो करता है वह तीर्थङ्कर-गोत्र कर्म की उपार्जना करता है / अतः घृणा छोड़कर ग्लान (रोगी) की सेवा करनी चाहिए / अब सूत्रकार छब्बीसवें स्थान का विषय वर्णन करते हैं :जे कहाहिगरणाई संपउंजे पुणो-पुणो / सव्व-तित्थाण-भेयाणं महामोहं पकुव्वइ / / 26 / / यः कथाधिकरणानि संप्रयुङ्क्ते पुनः-पुनः / (तानि चेत्) सर्वतीर्थ-भेदाय महामोहं प्रकुरुते / / 26 / / ‘पदार्थान्वयः-जे-जो कोई कहाहिगरणाइं-हिंसाकारी कथा का पुणो-पुणो-पुनः पुनः संपउंजे-प्रयोग करता है और वह कथा सव्व-सब तित्थाण-ज्ञानादि तीर्थों के भेयाणं-भेद के लिए हो तो वह व्यक्ति महामोह-महा-मोहनीय कर्म की पकुव्वइ-उपार्जना करता है / ___ मूलार्थ-जो हिंसा-युक्त कथा का बार-बार प्रयोग करता है और यदि वह कथा ज्ञानादि तीर्थों के भेद के लिए सिद्ध होती हो तो वह (कथा करने वाला) महा-मोहनीय कर्म की उपार्जना करता है / टीका-इस सूत्र में हिंसायुक्त कथा के विषय में कहा गया है / कौटिल्य अर्थशास्त्र तथा कामशास्त्र आदि में ऐसी गाथाएं हैं, जिनके सुनने से श्रोताओं की सहज ही में हिंसा और मैथुनादि कुकृत्यों में प्रवृत्ति होती है / जो ऐसी हिंसा-जनक और कामोद्वेजक कथाओं का बार-२ प्रयोग करता है, जिससे संसार-सागर को पार करने के सहायक-रूप ज्ञानादि मार्ग (तीर्थ) अथवा साधु प्रमुख चार तीर्थों का नाश होता हो, अथवा