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________________ नवमी दशा हिन्दीभाषाटीकासहितम् / 323 अतपस्वी यः कश्चित् तपसा प्रविकत्थते / सर्वलोक-परः स्तेनो महामोहं प्रकुरुते / / 24 / / पदार्थान्वयः-जे-जो केई-कोई अतवस्सीए-तप करने वाला नहीं है किन्तु तवेणं-तप से पविकत्थइ-अपनी प्रशंसा करता है अर्थात् कहता है कि मैं तपस्वी हूं वह सव्वलोय-परे-सब लोकों में सबसे बड़ा तेणे-चोर है अतएव महामोह-महा-मोहनीय कर्म की पकुव्वइ-उपार्जना करता है / मूलार्थ-जो कोई वास्तव में तपस्वी नहीं किन्तु जनता में अपने आप को तपस्वी प्रख्यात करता है वह सब लोकों में सब से बड़ा चोर है, अतएव महा-मोहनीय कर्म की उपार्जना करता है / टीका-इस सूत्र में अपनी मिथ्या ख्याति के विषय में वर्णन किया गया है / जो कोई व्यक्ति तप तो नहीं करता किन्तु जग में प्रसिद्धि प्राप्त करने की इच्छा से अपने आपको तपस्वी कहता है वह तप जैसे पुण्य कर्म के लिए भी झूठ बोलता है, फलतः महा-मोहनीय कर्म के बन्धन में आता है / इस सूत्र से प्रत्येक व्यक्ति को शिक्षा लेनी चाहिए कि अपनी झूठी प्रशंसा के लिए कभी भी असत्य का प्रयोग न करे / जो अपना झूठा यश चाहता है उसको यहां चोर कहा गया है और वह भी सब से उत्कृष्ट, जैसे 'सर्वस्मात् लोकात्-सर्वजनेभ्यः परः-उत्कृष्टः स्तेनश्चौर इत्यर्थः' क्योंकि वह लोगों की दृष्टि से सत्य को छिपाता है अतः उसको चोर कहा गया है / अब सूत्रकार पच्चीसवें स्थान में साधारण विषय वर्णन करते हैं :साहारणट्ठा जे केइ गिलाणम्मि उवट्टिए / पभू न कुणइ किच्चं मज्झंपि से न कुव्वइ / / साधारणार्थं यः कश्चिद् ग्लान उपस्थिते / प्रभुन कुरुते कृत्यं ममाप्येष न करोति / / पदार्थान्वयः-जे-जो केई-कोई साहारणट्ठा-उपकार के लिए गिलाणम्मि-रोगादि ___के उवट्ठिए-उपस्थित होने पर पभू-समर्थशाली होते हुए भी किच्चं-वैयावृत्यादि सेवा - --
SR No.004500
Book TitleDasha Shrutskandh Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherAatmaram Jain Dharmarth Samiti
Publication Year2001
Total Pages576
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_dashashrutaskandh
File Size11 MB
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