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________________ 0000 ग्रन्थ-प्रतिपादन-शैली यद्यपि हम स्वाध्याय के विषय में प्रायः लिखते ही जा रहे हैं / फिर भी इसके वास्तविक लाभों पर जब हमारी दृष्टि पड़ती है तो पुनरुक्ति का भय रहते हुए भी इस विषय में और अधिक लिखने की इच्छा बढ़ती ही जाती है | जितना कोई व्यक्ति धर्म-शास्त्रों का अध्ययन करेगा उतना ही उसकी आत्मा पर अधिक प्रभाव पड़ेगा और धीरे-२ वह उसी के आनन्द में लीन होकर अनायास ही कर्म-क्षय की ओर अग्रसर हो जायेगा | जिस समय कोई भी व्यक्ति एक उच्चतम फल अपनी आंखों के सामने देख लेता है फिर वह उसकी प्राप्ति की ओर लग जाता है / किन्तु पहले साधारण व्यक्ति का चित्त इस ओर आकर्षित करने के लिए अच्छे सुललित, सरल, विस्तृत और अनेक उदाहरण और प्रत्युदाहरणों से युक्त ग्रन्थों की आवश्यकता है / हमारा प्रस्तुत ग्रन्थ इसी प्रकार के ग्रन्थों में से एक है / इसमें अत्यन्त मनोहर गद्य में शिक्षा का भण्डार संगृहीत है / और प्रत्येक विषय का विस्तृत रूप से निरूपण किया गया है | असमाधि के ज्ञान के लिए पहले समाधि के ज्ञान की आवश्यकता है / अतः उसके पहले द्रव्य-समाधि और भाव-समाधि के दो भेद कहे गये हैं | द्रव्यों के सम प्रमाण से अथवा अविरोधि-भाव से मिलन को द्रव्य-समाधि कहते हैं / अनेक प्रकार के शिल्प-कलाओं की शिक्षा का मुख्य उद्देश्य, द्रव्यों के ठीक-ठीक उपयोग का ज्ञान ही द्रव्य-समाधि कहलाती है / दूसरी भाव-समाधि है / इसका तात्पर्य ज्ञान, दर्शन और चरित्र द्वारा आत्मा में समाधि उत्पन्न करना है / जिस समय आत्मा में ज्ञान आदि का सञ्चय हो जाता है, उस समय उसमें एक अलौकिक प्रशान्तरस का संचार होने लगता है और उसको फलतः समाधि की प्राप्ति भी होने लग जाती है। - इन दोनों प्रकार की समाधियों की प्राप्ति के लिए अपने कल्याण चाहने वाले व्यक्ति को सदैव प्रयत्नशील होना चाहिए, जिससे वह इह-लौकिक सुख के साथ पारलौकिक उन्नति के साधन भी एकत्रित कर सके | इस प्रकार केवल असमाधि-स्थानों के वर्णन से सूत्रकार ने हमारे सामने कितनी उच्च शिक्षाओं का भण्डार रख दिया है / इसका अनुभव पाठक स्वयं कर सकते हैं | इसी तरह अन्य दशाओं में भी मिलता है / यह कहने की आवश्यकता अब नहीं कि इस ग्रन्थ का मुख्य प्रतिपाद्य विषय केवल आचार ही है, जिसके बिना ज्ञान दर्शन की प्राप्ति असम्भव नहीं तो दुःसाध्य अवश्य है / अतः सबसे पहले सदाचार को अपनाकर ज्ञान
SR No.004500
Book TitleDasha Shrutskandh Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherAatmaram Jain Dharmarth Samiti
Publication Year2001
Total Pages576
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_dashashrutaskandh
File Size11 MB
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