________________ - - 274 दशाश्रुतस्कन्धसूत्रम् सप्तमी दशा मूलार्थ-द्वि-मासिकी भिक्षु-प्रतिमा-प्रतिपन्न अनगार नित्य व्युत्सृष्टकाय होता है अर्थात् उसको शरीर का मोह नहीं होता और वह केवल दो दत्ति आहार की और दो दत्ति पानी की ग्रहण करता है / इसी प्रकार त्रि-मासिकी, चतुर्मासिकी, पञ्च-मासिकी, षण्मासिकी और सप्त-मासिकी भिक्ष-प्रतिमाओं में मुनि क्रमशः तीन, चार, पांच, छ: और सात दत्तियां ग्रहण कर सकता है / कहने का तात्पर्य यह है कि जितनीवी मासिकी प्रतिमा हो उतनी ही दत्तियों की वृद्धि कर लेनी चाहिए / टीका-इस सूत्र में दूसरी प्रतिमा से लेकर सातवीं प्रतिमा तक का वर्णन किया गया है / जब साधु दूसरी भिक्षु-प्रतिमा ग्रहण करे तो उसको दो दत्ति भोजन और दो दत्ति पानी की ग्रहण करनी चाहिएं / किन्तु उसकी शेष वृत्ति पहली प्रतिमा के समान ही होनी उचित है / विशेषता केवल दत्तियों की ही है / इसी प्रकार सात प्रतिमाओं तक जान लेना चाहिए / अर्थात् तीसरी, चौथी, पांचवीं, छठी और सातवीं प्रतिमा में क्रम से तीन, चार, पांच, छ: और सात दत्तियां अन्न और सात पानी की लेनी चाहिएं / कहने का आशय यह है कि जितनीवीं मासिकी प्रतिमा हो उतनी ही दत्ति भी ग्रहण करनी चाहिए / प्रत्येक प्रतिमा एक-२ मास की होती है / केवल दत्तियों की वृद्धि के कारण ही द्वि-मासिकी त्रि-मासिकी आदि संख्या दी गई है / कहने का तात्पर्य यह है कि द्विमासिकी प्रतिमा का काल भी एक ही मास है / इसी प्रकार त्रिमासिकी आदि के विषय में भी जानना चाहिए / भेद केवल दत्तियों के कारण ही है / इस प्रकार इस सूत्र में सात दत्तियों का वर्णन किया गया है / अब सूत्रकार आठवीं प्रतिमा का विषय वर्णन करते हैं : पढमा सत्त-राइंदिया भिक्खु-पडिमा पडिवन्नस्स अणगारस्स निच्चं वोसट्टकाए जाव अहियासेइ / कप्पइ से चउत्थेणं भत्तेणं अप्पाणएणं बहिया गामस्स वा जाव रायहाणिए वा, उत्ताणस्स पासिल्लगस्स वा नेसिज्जयस्स वा ठाणं ठाइत्तए / तत्थ दिव्वं माणुस्सं तिरिक्ख-जोणिया उवसग्गा समुपज्जेज्जा तेणं उवसग्गा - -