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________________ . - - अतः यह निर्विवाद मानना पड़ेगा कि श्रुत-ज्ञान ही पथ-प्रदर्शक होने के कारण सर्वश्रेष्ठ है / अचित्त-द्रव्य-संगति शुद्ध भोजन आदि की कही गई है / जो व्यक्ति शुद्ध और अभक्ष्य-वर्जित अर्थात् तामस-रहित भोजन करता है, उसकी आत्मा में अवश्य ही पवित्र विचारों का संचय होता रहता है, जो व्यक्ति निरन्तर तमोगुण-युक्त भोजन करता है, उसके चित्त में अच्छे उपदेशों से अच्छे विचारों का संचय नहीं होता है / क्योंकि जिस भोजन से उसका देह बना होता है, वह उसकी बुद्धि को उसी रूप में रंगता चला जाता है / जिस नदी में जल की अधिकता और वेग होता है उसमें अच्छे से अच्छे तैराक भी जिस तरह बह जाते हैं उसी प्रकार तमो-गुण की बाढ़ में श्रेष्ठ से श्रेष्ठ उपदेश भी अपना बल नहीं दिखा सकता / प्रकृति भी हमें यही बताती है कि सिंहादि हिंसक जन्तु लोगों की दृष्टि में निकृष्ट समझे जाते हैं किन्तु तृणादि भक्षण करने वाले गौ आदि बुरी दृष्टि से देखे जाने के स्थान पर पूजे और पाले जाते हैं / यही कारण है कि शुद्ध भोजन से चित्त शान्त होकर अपने कल्याण की ओर झुक जाता है / जिस क्षेत्र में रहकर चित्त में दुर्भावना और बुरे विचार पैदा न हों, किन्तु वह शान्त होकर धार्मिक मार्ग की ओर झुकने लगे उसको क्षेत्र-सुसंगति कहते हैं / यह निश्चित है कि स्थान का प्रभाव जीवन पर अवश्य पड़ता है / यदि कोई व्यक्ति वेश्या के घर के नजदीक रहता है तो वह शुद्ध होने पर भी अवश्य एक न एक दिन अपना सदाचार खो बैठेगा / इसी प्रकार मदिरा पीने वाले और चोरों के समीप रहने वाले पर भी उनका प्रभाव बिना पड़े न रहेगा / किन्तु जो सदाचारी और धर्मात्माओं के समीप रहेगा, वह बुरे से बुरा भी एक दिन अवश्य ठीक रास्ते पर आ जाएगा / अतः सिद्ध हुआ कि क्षेत्र-सुसंगति से शुद्ध आत्माओं की ज्ञान-वृद्धि तो होती ही है, किन्तु नीच से नीच व्यक्तियों का भी इससे आचार शुद्ध हो जाता है / हमारी इस भारत-भूमि में पूर्व काल से ही इन तीनों सुसंगतियों की प्राप्ति होती रही है / अतः शास्त्रकारों ने सहस्रों देश होने पर भी आर्य-भूमि को ही धर्म-ध्यान की दृष्टि से सर्वोत्तम माना है / काल-सुसंगति उसको कहते हैं जिस काल में आत्मा के भाव शुद्ध रह सकें / प्रत्येक कार्य उचित काल में ही करना चाहिए, वास्तव में यही काल-सुसंगति होती है / बिना समय के कार्य करने में लाभ के स्थान पर हानि होने की अधिक सम्भावना रहती है / यदि कोई व्यक्ति अनुचित समय में परिभ्रमण करता है तो वह उससे अनेक प्रकार की हानि उठाता है / विरुद्ध समय में मन में विचार भी विरुद्ध ही उठते हैं, अतः बहुत -
SR No.004500
Book TitleDasha Shrutskandh Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherAatmaram Jain Dharmarth Samiti
Publication Year2001
Total Pages576
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_dashashrutaskandh
File Size11 MB
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