________________ 170 दशाश्रुतस्कन्धसूत्रम् षष्ठी दशा प्रत्येक स्थान पर अधर्म का अनुमोदन करता हुआ, फलतः अधर्म का अनुगामि हो जाता है / श्रुत और चारित्र धर्म का सर्वथा त्याग कर अधर्म को ही अपना इष्ट (प्रिय) बना लेता है और निरन्तर उसकी सेवा करने में लगा रहता है / वह अधर्म को ही देखता है और उसी से राग आलापने लगता है / वह अधर्म को ही अपना आचार व्यवहार और सब कुछ समझता है और उसी से अपनी आजीविका करता हुआ विचरण करता है | उसकी वृत्ति धर्म की निन्दा कर लोगों पर अपना प्रभाव जमाने की हो जाती है / सूत्र में दिये हुए “अधर्म-प्रजनक” इस समस्त पद का निम्नलिखित अर्थ है:- . "अधर्मं प्रकर्षेण जनयति लोकानामपीति-अधर्म-प्रजनकः ! क्वचिद् “अधम्म-पलज्जणे" इति पाठोऽपि दृश्यते तत्राधर्म-प्रायेषु कर्मसु प्रकर्षेण रज्यते-आसज्जति इति अधर्म-प्ररज्जनः / 'रलयोरैक्यमिति' रकारस्य स्थाने लकारोऽत्र विहितः / 'अधर्म-प्रजनक' का अर्थ लोक में अधर्म उत्पन्न करता हुआ / अतः सिद्धान्त यह निकला कि नास्तिक अपने जीवन को पाप–मय बनाता है / वह सदाचार को दूर कर कदाचार में लग जाता है / ____ इसके अनन्तर नास्तिक की क्या दशा होती है इसका वर्णन निम्नलिखित सूत्र में करते हैं:__ "हण, छिंद, भिंद,” विकत्तए, लोहिय-पाणी, चंडे, रूद्दे, खुद्दे, असमिक्खियकारी, साहस्सिए, उक्कंचण, वंचण, माई, नियडि, कूडमाई, साइ-संपओग, बहुले, दुस्सीले, दुप्परिचए, दुचरिए, दुरणुणेया, दुव्वए, दुप्पडियानंदे, निस्सीले, निव्वए, निग्गुणे, निम्मेरे, निपच्चक्खाण-पोसहोववासे, असाहु / "जहि, छिन्धि, भिन्धि" विकर्तकः, लोहित-पाणिः, चण्डः, रुद्रः, क्षुद्रः, असमीक्षितकारी, साहसिकः, उत्कञ्चनः, वञ्चनः, मायी, निकृतिः, कूटमायी, साति-संप्रयोग-बहुलः, दुश्शीलः दुष्परिचयः, दुश्चर्यः, दुरनुनेयः, दुव्रतः, दुष्प्रत्यानन्दः, निश्शीलः, निव्रतः, निर्गुणः, निर्मर्यादः, निष्प्रत्याख्यान-पोषधोपवासः, असाधुः (स नरः पापकारित्वात्) | .