________________ - षष्ठी दशा हिन्दीभाषाटीकासहितम् / 167 पदार्थों की स्थिरता का विरोधी है, इहलोक और परलोक नहीं मानता, वह कहता है कि यह लोक नहीं, परलोक नहीं, माता नहीं, पिता नहीं, अरिहन्त नहीं हैं, चक्रवर्ती नहीं हैं, बलदेव नहीं हैं, वासुदेव नहीं हैं, नारकीय नहीं हैं, सुकृत और दुष्कृत कर्मों का फल नहीं है, शुभ कर्मों के शुभ और दुष्ट कर्मों के दुष्ट फल नहीं होते, कल्याण और पाप का कोई फल नहीं होता, आत्मा परलोक में जाकर उत्पन्न नहीं होता, नरक से लेकर मोक्ष पर्यन्त कोई स्थान नहीं है, वह ऐसा कहता है, इस प्रकार उसकी प्रज्ञा और दृष्टि है, इस प्रकार उसने अपने अभिप्रायों को राग में स्थापन किया हुआ है अर्थात् उसकी मति उक्त विषयों में स्थित है। टीका-इस सूत्र में मिथ्या-दर्शन का दिग्दर्शन कराया गया है, क्योंकि बिना मिथ्या-दर्शन का ज्ञान किये उपासक सम्यग्-दर्शन की सिद्धि नहीं कर सकता / सम्यग-दर्शन से पूर्व मिथ्या-दर्शन का बोध आवश्यक है अतः उसका यहां सबसे पहिले वर्णन करना उचित और न्याय–सङ्गत है | मिथ्या-दर्शन सम्यग-दर्शन का बिलकुल प्रतिपक्षी है इसकी सहायता से सम्यग्-दर्शन का बिलकुल प्रतिपक्षी है इसकी सहायता से सम्यग-दर्शन का बोध अनायास ही हो सकता है / मिथ्या-दर्शन के आभिग्रहिक और अनाभिग्रहिक दो भेद होते हैं | दुराग्रह से या हठ-पूर्वक मिथ्या-दर्शन पर दृढ़ रहना आभिग्रहिक मिथ्या-दर्शन होता है और अनाभिग्रहिक संज्ञी और असंज्ञी जीवों के सामान्य मिथ्या-दर्शन होता है और अनाभिग्रहिक संज्ञी और असंज्ञी जीवों के सामान्य मिथ्या-दर्शन को कहते हैं / सूत्रकार इस प्रकार उसका वर्णन करते हैं:___क्रिया-वाद आस्तिक-वाद् का नाम है / यह सम्यग्-दर्शन है इसके विरुद्ध अक्रिया-वाद-जीवादि पदार्थों का अपलाप करना-नास्तिक-वाद है | यह मिथ्या-दर्शन होता है / अक्रिया-वाद में भव्य और अभव्य दोनों प्रकार के व्यक्ति होते हैं, किन्तु क्रिया (आस्तिक) वाद में केवल भव्य आत्मा ही होते हैं / उन्हीं में कोई-कोई शुक्ल पाक्षिक भी होते हैं, क्योंकि वे उत्कृष्ट-अर्द्ध-परावर्तन के भीतर ही सिद्ध गति प्राप्त करेंगे / किन्तु ऐसे व्यक्ति भी दीर्घकाल तक संसारी होने के कारण कुछ समय के लिए अक्रिया-वाद में प्रविष्ट हो जाते हैं | उस समय वे लोग अपना सिद्धान्त बना लेते हैं कि आत्मा वास्तव है में कोई पदार्थ नहीं है / पञ्चभूतों के अतिरिक्त कोई भी दिव्य शक्ति संसार में नहीं है,