________________ 152 दशाश्रुतस्कन्धसूत्रम् पंचमी दशा वाला होता है / अर्थात् सब कर्मों के क्षय होने के कारण वह सर्वज्ञ होकर सम्पूर्ण मूर्त और अमूर्त पदार्थों को जानने लगता है / इसके अतिरिक्त वह केवल-ज्ञान की समाधि में निमग्न हो जाता है और वह समाधि अच्युत होती है / __ अब सूत्रकार केवल-दर्शन का विषय कहते हैं: जया से दरसणावरणं सव्वं होई खयं गयं / तओ लोगमलोगं च जिणो पासति केवली / / 6 / / यदा तस्य दर्शनावरणं सर्वं भवति क्षयं गतम् / ततो लोकमलोकञ्च जिनः पश्यति केवली / / 6 / / पदार्थान्वयः-जया-जिस समय से-उस मुनि के दरसणावरणं-दर्शनावरणीय कर्म 'सव्वं-सब प्रकार से खयं गयं-क्षय-गत होइ-होते हैं तओ-उस समय वह मुनि जिणो-जिन भगवान् और केवली-केवल ज्ञान से उत्पन्न होने से लोग-लोक च-और अलोग-अलोक . को पासति-देखने लगता है / मूलार्थ-जिस मुनि के दर्शनावरणीय कर्म सब प्रकार नष्ट हो जाते हैं उस समय वह जिन और केवली होकर लोक और अलोक को देखने वाला हो जाता है / टीका-इस सूत्र में सर्व-दर्शी का वर्णन करते हुए सूत्रकार कहते हैं कि जब गुण-सम्पन्न मुनि के दर्शनावरणीय कर्म सब प्रकार से नष्ट हो जाते हैं तब वह मुनि जिन भगवान् हो जाता है और केवल-दर्शन की सहायता से लोक और अलोक को हस्तामलक के समान देखता है / ज्ञान और दर्शन में केवल इतना ही अन्तर है कि दर्शन सामान्यावबोध रूप होता है और ज्ञान विशिष्ट अवबोध रूप / दोनों की प्राप्ति होने पर आत्मा सर्वज्ञ और सर्वदर्शी हो जाता है / फलतः वह सम्पूर्ण मूर्त और अमूर्त पदार्थों को जानने और देखने के योग्य हो जाता है और उससे वह पूर्ण समाधि प्राप्त करता है / अब सूत्रकार फिर उक्त विषय का ही विवरण कहते हैं:पडिमाए विसुद्धाए मोहणिज्जं खयं गयं / . असेसं लोगमलोगं च पासेति सुसमाहिए / / 10 / /