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________________ 140 दशाश्रुतस्कन्धसूत्रम् पंचमी दश - हो जाय तो चित्त को समाधि आ जाती है / संज्ञि-ज्ञान-जाति-स्मरण जो उसको पहले उत्पन्न नहीं हुआ, यदि उत्पन्न हो जाय तो उसके द्वारा अपनी पुरानी जाति का स्मरण करता हुआ समाधि प्राप्त कर सकता है / साम्य-भाव से देव-दर्शन पूर्व असमुत्पन्न है यदि हो जाय तो देवों की प्रधान देवर्द्धि, देव-द्युति और प्रधान देवानुभाव को देखता हुआ समाधि प्राप्त कर सकता है | अवधि-ज्ञान पूर्व असमुत्पन्न है यदि उत्पन्न हो जाय तो उससे लोक के स्वरूप को देखता हुआ चित्त समाधि प्राप्त कर सकता है / टीका-इस सूत्र में व्यवहार नय के आश्रित होते हुए भाव-समाधि के स्थान वर्णन किये गये हैं / सब समाधियों का मूल कारण ज्ञान-समाधि है, अतः सूत्रकार ने सब से पहले उसी का वर्णन किया है / इस अनादि और अनन्त संसार-चक्र में प्रत्येक प्राणी को अनन्त बार जन्म और मरण के फेर में आना पड़ा है और प्रत्येक जन्म में निरर्थक चिन्ताओं के वश में आकर पवित्र जीवन को व्यर्थ खोना पड़ा है / मनुष्य संसार में आकर काम-चिन्ता, भोग-चिन्ता, गृह-चिन्ता, व्यापार-चिन्ता, पुत्र-चिन्ता, स्त्री-चिन्ता, धन-चिन्ता, धान्य-चिन्ता सम्बन्धि-चिन्ता और मित्र-चिन्ता आदि अनेक चिन्ताओं से आक्रान्त हो जाता है, किन्तु धर्म-चिन्ता की ओर उसका ध्यान ही नहीं जाता / अतः सूत्रकार कहते हैं किं यदि पूर्वकाल में धर्म की भावना न हो और वर्तमान काल में उसकी ओर प्रवृत्ति हो जाय तो मनुष्य उस धर्म-चिन्ता के द्वारा श्रुत और चारित्र रूप धर्म को भली भांति जान सकता है / प्रश्न यह उपस्थित होता है कि उस धर्म शब्द का क्या अर्थ है जिसकी चिन्तना से समाधि की प्राप्ति होती है ? उत्तर में कहा जाता है कि जिससे पदार्थों का वास्तविक स्वरूप जाना जाय उसको धर्म कहते हैं | उसके ज्ञान से ही आत्मा जिस अलौकिक आनन्द को प्राप्त करता है; उसी का नाम भाव-समाधि है / वह (धर्म) ग्राम, नगर, राष्ट्र, आदि भेद से अनेक प्रकार का होता है / सब से पहले प्रत्येक पदार्थ के उत्पाद, (उत्पत्ति) व्यय और ध्रौव्य रूप धर्म का ज्ञान कर लेना चाहिए / तदनन्तर उसको हेय, ज्ञेय और उपादेह रूप में परिणत करना चाहिए और चित्त में अनभव करना चाहिए कि सर्वज्ञोक्त' कथन-पूर्वापर अविरुद्ध होने से, पदार्थों का भली भांति बोधक होने से तथा अनुपम होने
SR No.004500
Book TitleDasha Shrutskandh Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherAatmaram Jain Dharmarth Samiti
Publication Year2001
Total Pages576
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_dashashrutaskandh
File Size11 MB
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