SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 179
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ - w4. है चतुर्थी दशा हिन्दीभाषाटीकासहितम् / - मूलार्थ-हे भगवन् ! संग्रह-परिज्ञा नाम वाली सम्पदा कौन सी है? हे शिष्य ! संग्रह-परिज्ञा नाम वाली सम्पदा चार प्रकार की वर्णन की गई है, जैसे-बहुत से मुनियों के, वर्षा ऋतु में, निवास के लिए स्थान देखना, बहुत से मुनियों के लिए प्रातिहारिक पीठफलक, शय्या और संस्तारक ग्रहण करना, उचित समय पर (समय के विभाग अनुसार) प्रत्येक कार्य करना और अपने से बड़ों का मान तथा पूजा करना / यही संग्रह-परिज्ञा नाम वाली सम्पदा है | ____टीका-इस सूत्र में संग्रह-परिज्ञा नाम वाली आठवीं सम्पदा का वर्णन किया गया है / जैसे-गणी का कर्तव्य है कि निम्नलिखत क्रियाओं से गण का संग्रह (संगठन) करे; क्योंकि लौकिक व्यवहार में भी देखा जाता है कि जो जिसकी रक्षा कर सकता है वह उसके अधीन अवश्य ही हो जाता है, इसी प्रकार गण का अधिपति होने के लिए गणी को उसकी रक्षा का भार अपने ऊपर लेना ही चाहिए / अतः उसको योग्य है कि वह बहुत से मुनियों के वर्षाकाल में निवास के लिए क्षेत्रों का अवलोकन करे और बाल, दुर्बल, तपस्वी, योग-वाहक या रोगी मुनियों की सुविधाओं का विचार, क्षेत्र देखते समय, अवश्य रखे / जिससे उन्हें अन्न, पानी और औषध समयानुसार मिलते रहें / इसके अतिरिक्त जो शिष्य अध्ययन के इच्छुक हैं अथवा अध्ययन कर चुके हैं, उनके लिए भी उचित क्षेत्र होने चाहिएं, जिससे उनका चातुर्मास भी बिना किसी विघ्न के शान्ति-पूर्वक निभ सके | यदि उचित प्रबन्ध नहीं होगा तो, बहुत सम्भव है, वे लोग स्वच्छन्दाचारी बन बैठें / उचित क्षेत्र अवलोकन के पश्चात् बहुत से मुनियों के लिए, उपयोग के अनन्तर लौटाए जाने वाले, पीठफलक, शय्या और संस्तारक आदि का प्रबन्ध करना भी गणी का कर्तव्य है, क्योंकि वर्षा ऋतु में पीठफलक आदि की अतयन्त आवश्यकता है / इस ऋतु में अनेक जीव उत्पन्न हो जाते हैं | उनकी हिंसा न हो जाय, इसलिए वस्त्रादि उपकरणों का स्वच्छ रहना परम आवश्यक है / यदि वे मलिन रहेंगे तो उन में भी जीवोत्पत्ति की सम्भावना है और उससे जीव-विराधना सहज में हो सकती है, जो उभय-लोक में अनिष्ट करने वाली है / अतः वर्षा ऋतु में उक्त उपकरणों का प्रबन्ध गणी को अवश्य करना चाहिए / -
SR No.004500
Book TitleDasha Shrutskandh Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherAatmaram Jain Dharmarth Samiti
Publication Year2001
Total Pages576
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_dashashrutaskandh
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy