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________________ S चतुर्थी दशा हिन्दीभाषाटीकासहितम् / 106 या कथा करने के लिए उद्यत होना चाहिए / जैसे एक वैद्य रोग, निदान, औषध और उसका प्रयोग भली प्रकार जानकर यदि किसी रोगी की चिकित्सा के लिए प्रवृत्त होता है तो वह शीघ्र ही उस रोगी को आराम कर देता है, ठीक इसी प्रकार यदि गणी भी विषय में अपनी शक्ति देखकर वाद में प्रवृत होगा तो अवश्य ही उसमें सफलता प्राप्त करेगा / वाद में प्रवृत्त होने से पहिले इस बात का अवश्य ध्यान रखना चाहिए कि जिस परिषद् में विवाद होने वाला है वह किस विचार की है और किस देवता को मानने वाली है / साथ ही यह भी अवश्य देखना चाहिए कि जिस पुरूष के साथ वाद होने वाला है वह कुछ जानता भी है या केवल विवादी और हठी ही है / क्षेत्र-विषयक विवाद में भी तभी प्रवृत्त होना चाहिए जब कि क्षेत्र से सम्बन्ध रखने वाले सारे कारणों का भली भांति ज्ञान हो / जैसे-क्षेत्र में किस मात्रा में और किस प्रकार का भोजन मिल सकता है तथा इस में किस मात्रा में पानी मिलता है और यह सुखप्रद है या नहीं इत्यादि / - विवाद में वस्तु परिज्ञान की अत्यन्त आवश्यकता है / वस्तु शब्द से यहां पुरुष विशेष का ग्रहण किया गया है / जैसे-विवाद से पूर्व यह अवश्य जान लेना चाहिए कि जिस व्यक्ति के साथ विवाद होने वाला है वह कितने आगमों का जानने वाला है, कोई राजा या अमात्य तो नहीं, भ्रद प्रकृति का है या क्रूर और कुटिल इत्यादि / इन सब बातों का तथा उसके भावों का अच्छी तरह पता लगाकर जो विवाद में प्रवृत्त होगा उसे अवश्य सफलता मिलेगी / यदि बिना भावों का परिचय किये हुए व्याख्यान या विवाद प्रारम्भ किया जाये तो अन्य व्यक्ति उसके भावों से सहमत न होते हुए स्कन्दकाचार्य या पालक पुरोहित के समान क्रिया करने में स्वयं प्रवृत हो जाएंगे / अतः पूर्वोक्त सब विषयों को विचार कर ही धर्म-कथा या विवाद में प्रवृत होना चाहिए 'वस्तु' शब्द से पदार्थों का भी ग्रहण होता है / अतः जिस पदार्थ के निर्णय के लिए विवाद प्रारम्भ किया जाय उसका भी पूर्णतया बोध होना आवश्यक है / जो बिना विषय-ज्ञान के विवाद में प्रवृत्ति करेगा, हठी लोग उसके जीवन पर आक्रमण कर सकते हैं; और किसी समय सम्भवतः उसको जीवन से हाथ धोने ही पड़ें / किन्तु ध्यान रहे कि धर्म के सामने जीवन का कोई मूल्य नहीं / यदि कोई व्यक्ति जीवन की धमकी देकर धर्म छोड़ने के लिए कहे तो धर्म के स्थान पर जीवन परित्याग ही अधिक श्रेयस्कर है / जैसे गज सुकुमारादि ने दृष्टान्त रूप में सामने रखा है।
SR No.004500
Book TitleDasha Shrutskandh Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherAatmaram Jain Dharmarth Samiti
Publication Year2001
Total Pages576
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_dashashrutaskandh
File Size11 MB
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