SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 17
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ स्वाध्याय आत्मा स्वाध्यायद्वारा आत्मविकास कर सकता है, परन्तु स्वाध्याय विधिपूर्वक होना चाहिए / यदि विधिशून्य. स्वाध्याय किया जाएगा, तो वह आत्माविकास करने में समर्थ नहीं हो सकेगा, क्योंकि विधिपूर्वक किया हुआ स्वाध्याय ही वास्तविक स्वाध्याय है। स्वाध्याय का फल अब प्रश्न यह उपस्थित होता है कि स्वाध्याय करने से किस फल की प्राप्ति होती है / इसका उत्तर यह है कि "सज्झाएणं भंते! जीवे किं जणयइ" "सज्झाएणं नाणावरणिज्जं कम्म खवेइ" उत्तराध्ययन अ० 26 सू० 18 अर्थात् हे भगवन् ! स्वाध्याय करने से किस फल की प्राप्ति होती है ? भगवान् कहते हैं कि-हे शिष्य ! स्वाध्याय करने से ज्ञानावरणीय कर्म क्षीण हो जाते हैं / जब ज्ञानावरणीय कर्म ही क्षीण हो गए, तो आत्मविकास स्वयमेव हो जायगा, जिससे कि आत्मा अपने स्वरूप में प्रविष्ट हो जाने के कारण सब दुःखों से छूट जायगा / क्योंकि. "सज्झाए वा सव्वदुक्खविमोक्खणे" उत्त० अ० 26 गा० 10 अर्थात् स्वाध्याय सब दुःखों से विमुक्त करने वाला है / शारीरिक और मानसिक दुःखों का उद्भव अज्ञानता से ही होता है / जब अज्ञानता नष्ट हो गई, तब वे दुःख भी स्वयं नष्ट हो जाते हैं / क्योंकि --
SR No.004500
Book TitleDasha Shrutskandh Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherAatmaram Jain Dharmarth Samiti
Publication Year2001
Total Pages576
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_dashashrutaskandh
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy