________________ चतुर्थी दशा हिन्दीभाषाटीकासहितम् / 655 १-आचार-(यार) संपया २-सुय-संपया ३-सरीर-संपया ४-वयण-संपया ५-वायणा-संपया ६-मइ-संपया ७-पओग-संपया ८-संगह-परिन्ना अट्ठमा / / 1 आचार-सम्पत् 2 श्रुत-सम्पत् 3 शरीर-सम्पत् 4 वचन-सम्पत् ५-वाचना-सम्पत् 6 मति-सम्पत् 7 प्रयोग-सम्पत् 8 संग्रह-परिज्ञाष्टमी / पदार्थान्वयः-आचार-(यार) संपया-आचार-सम्पत् सुय-संपया-श्रुत-संपत् सरीर-संपया-शरीर-सम्पत् वयण-संपया-वचन-सम्पत् वायणा-संपया-वाचना-सम्पत् मइ-संपया-मति-सम्पत् पओग-संपया-प्रयोग-सम्पत् अट्ठमा-आठवीं संग्रह-परिन्ना-संग्रह-परिज्ञा नाम वाली होती है। * मूलार्थ-सम्पत्-आचार-सम्पत्, श्रुत-सम्पत्, शरीर-सम्पत्, वचन-सम्पत्, वाचना-सम्पत्, मति-सम्पत्, प्रयोग-सम्पत्, और संग्रह-परिज्ञा भेदों से-आठ प्रकार की होती है। टीका-इस सूत्र में आठ सम्पदाओं का नाम-आख्यान किया गया है / इनकी क्रमपूर्वक होने में ही सार्थकता है / जैसे-सब से प्रथम आचार-शुद्धि की आवश्यकता है / जिसका आचार शुद्ध है उसके प्रायः सभी व्यवहार शुद्ध होते हैं / अतः प्राणि-मात्र के लिए सदाचार, भोजन और जल के समान परम आवश्यक है / वास्तव में सबसे बढ़कर आचार-रूपी सम्पत् ही ऐसी है जो सदैव आत्मा के सह-वर्तिनी है / आचार के अनन्तर श्रुत-सम्पत् है, क्योंकि सदाचार का ही श्रुत प्रशंसनीय होता है / इसके अनन्तर शरीर-सम्पत् आती है, क्योंकि श्रुतज्ञान का द्रव्य-आधार केवल शरीर ही है / यदि शरीर नीरोग और भली प्रकार स्वस्थ हो तभी श्रुत-ज्ञान के प्रचार की सफलता हो सकती है / इसके अनन्तर वचन-सम्पत् है, क्योंकि श्रुत-ज्ञानी यदि मधुर-भाषी होगा तभी उसका श्रुत-ज्ञान चरितार्थ हो सकता है / पाँचवी वाचना-सम्पत है / वचन-सम्पत के अनन्तर इस का होना परम आवश्यक है, क्योंकि स्वयं श्रुत-ज्ञानी होने पर भी यदि वह योग्यता पूर्वक श्रुत-ज्ञान का जनता में प्रचार नहीं कर सकता तो वह गणी नहीं कहलाया जा सकता है / छठी मति-सम्पत् है / इसका तात्पर्य यह है कि स्वयं अधिगत (प्राप्त) . श्रुत-ज्ञान बुद्धिमता से ही प्रदान करना चाहिए तभी सुनने वालों को उससे लाभ हो /