________________ - है तृतीय दंशा हिन्दीभाषाटीकासहितम् / 674 अनध्याय में स्वाध्याय न करे और शरीर के अशुचि होने पर भी स्वाध्याय न करना चाहिए / 'आचाराङ्गसूत्र' में भी उक्त विषय का पूर्व-वत् वर्णन किया गया है / ‘दशाश्रुतस्कन्धसूत्र' के सप्तम अध्ययन में भी कथन किया गया है कि अशुचि दूर करने के लिए जल अवश्य ही ग्रहण करना चाहिए, अर्थात् जल से शौच करना चाहिए / 'सूयगडांगसूत्र' के नवम अध्ययन में लिखा है कि हरित-काय पर उक्त क्रियाएं न करनी चाहिए / 'निशीथ-सूत्र' में भी शौच की विधि का जल द्वारा विधान किया गया है / 'निशीथसूत्र' में इस बात का भी वर्णन किया गया है कि मलोत्सर्ग के पश्चात् काष्ठादि द्वारा पायु-स्थान का कभी प्रमार्जन न करे (न पूंछ) / किन्तु स्थानाङ्गसूत्र में निम्र-लिखित पांच प्रकार से शौच वर्णन किया गया है-१-पृथिकी से शौच २-जल से शौच ३-अग्नि से शोच ४-मन्त्र-शौच भष्म शौच / तात्पर्य यह है कि जिस प्रकार का मल हो उसी प्रकार का शौच उसके लिए किया जाता है / प्रस्तुत सूत्र में केवल इस बात का वर्णन किया गया है कि यदि एक ही पात्र में जल हो तो शिष्य को गुरू से पूर्व आचमन (शौच) न करना चाहिए / किन्तु इसका अपवाद भी होसकता है जैसे गुरू शिष्य को आज्ञा दे कि दिन समाप्ति पर है तुम शीघ्र शौचकर उपाश्रय को चले जाना या अन्य कोई कारण विशेष उपस्थित हो जाये तो गुरू से पूर्व शोच करने पर भी शिष्य को आशातना नहीं लगती / परन्तु यह सब गुरू की आज्ञा पर निर्भर है / .. अब सूत्रकार ११वीं आशातना का विषय वर्णन करते हैं: सेहे रायणिएणं सद्धिं बहिया वियार-भूमि वा विहार-भूमिं वा निक्खंते समाणे तत्थ सेहे पुव्वतरागं आलोएइ पच्छा यणिए आसायणा सेहस्स ||11|| शैक्षो रात्निकेन सार्द्ध बहिर्वा विचार-भूमिं वा विहार-भूमिं वा निष्क्रान्तः सन्-तत्र शैक्षः पूर्वतरकमालोचयति पश्चाद् रानिक आशातना शैक्षस्य / / 11 / / पदार्थान्वयः-सेहे-शिष्य रायणिएणं-रत्नाकर के सद्धिं-साथ बहिया-बाहर वियार-भूमि-उच्चार-भूमि के प्रति वा-अथवा विहार-भूमिं वा-स्वाध्याय करने के स्थान को निक्खंते समाणे जाए और वहां से अपने स्थान पर आने पर वा-अथवा तत्थ-वहां