________________ 4001 ane द्वितीया 58 दशाश्रुतस्कन्धसूत्रम् सिद्धान्त यह निकला कि जल-काय जीवों की रक्षा भी पृथ्वीकाय जीवों की रक्षा की तरह आवश्यक है; क्योंकि संयम-रक्षा जीव-रक्षा के ऊपर ही निर्भर है / जल से मनुष्य का सम्बन्ध विशेष होता है, अतः जल-काय जीवों की रक्षा में भी विशेष सावधानता की आवश्यकता है; इसीलिए पुनः जल-विषयक कथन किया गया है / 'समवायाङ्ग सूत्र में निम्नलिखित पाठ भेद है 'अभिक्खणं 2 सीतोदय–वियड-वग्घारियपाणिणा असणं वा पाणं वा खाइमं वा साइमं वा पडिगाहित्ता भुंजमाणे सबले' / / 21 / / कुछ हस्त-लिखित प्रतियों में निम्नलिखित पाठ मिलता है: "आउट्टियाए सीओदग, रउग्घाण्णं वग्घारिणं' इत्यादि-इसका अर्थ यह है (रज उद्धात) जिस प्रकार रजो-वृष्टि होती है ठीक उसी प्रकार शरीर से पानी के बिन्दु नीचे गिरते हैं इत्यादि / उक्त सब पाठों का तात्पर्य यह है कि जल-काय जीवों की रक्षा के लिए यत्न करते हुए षट्-काय जीवों की भी रक्षा करनी चाहिए / ___प्रश्न यह उपस्थित हो सकता है कि यहां तक जितने भी शबल-दोष प्रतिपादन किये गये हैं, सबका सम्बन्ध चरित्र से ही है; क्या ज्ञान और दर्शन सम्बन्धी कोई शबल दोष नहीं होते उत्तर में कहा जाता है कि ज्ञान और दर्शन सम्बन्धी शबल-दोष भी होते हैं किन्तु यह चरित्र का अधिकार है अतः चरित्र से सम्बन्ध रखने वाले शबल-दोषों का ही यहां वर्णन किया गया है | अब प्रश्न यह होता है कि क्रम को छोड़ कर सब से पूर्व चरित्र के विषय में ही क्यों कथन किया गया है ? उत्तर में कहा जाता है कि दर्शन और ज्ञान के पश्चात् चरित्र का विषय है और वह चरित्र दर्शन और ज्ञान पूर्वक ही होता है / अतएव तीनों के ही शबल दोष जान लेने चाहिएं / दर्शन के शबल-दर्शन के विषय में शङ्का, आकङ्क्षा, विचिकित्सा, मिथ्या-दृष्टि-प्रशंसा और मिथ्या-दृष्टि-संस्तुति-हैं / और ज्ञान-शबल-अकाल-स्वाध्याय ज्ञान के प्रति अविनय, ज्ञान का बहुमान न करना, उपधान तप न करना, ज्ञान की निन्हुति (छिपाना), सूत्र और अर्थ की विपर्यासिता (क्रम भेद) तथा सूत्र का विपर्यास से (क्रम छोड़कर) पठन करना हैं / सारांश यह निकला कि मुमुक्षु आत्माओं को सम्यग्-दर्शन, सम्यग्-ज्ञान और सम्यग्-चरित्र के शबल दोषों का त्याग कर आत्म-विशुद्धि करने का प्रयत्न करना चाहिए, जिससे निर्वाण-पद की प्राप्ति हो सके /