________________ .00PM है द्वितीया दशा हिन्दीभाषाटीकासहितम् / दोषों की प्राप्ति होती है / तथा देखने वाले भव्य-व्यक्तियों के अन्तःकरण से जैन धर्म की महत्ता घट जाती है / सम्भव है कि उनके चित्त में यह विचार उत्पन्न हो जाय कि इनके नियमों के पालन करने का कोई ठिकाना नहीं और धर्म का उपहास होने लगे / ऐसा करने वालों का चरित्र निन्दनीय हो जाता है और जनता पर प्रकट हो जाने से जनता के हृदय से उनका विश्वास उठ जाता है / ___ इसके अतिरिक्त प्रतिज्ञा-भङ्ग आदि क्रियाओं का फल दोनों लोकों में अशुभ होता है, अतः इन कर्मों का सर्वथा त्याग करना चाहिए, जिससे शबल तथा अन्य दोषों की प्राप्ति न हो / . अब सूत्रकार अष्टम शबल का वर्णन करते हैं:अंतो छण्हं मासाणं गणाओ गणं संकममाणे सबले / / 8 / / / अन्तःषण्णां मासानां गणाद्गणं सङ्क्रामन् शबलः / / 8 / / पदार्थान्वयः-छहं-छ मासाणं-मासों के अंतो-भीतर ही गणाओ-एक गण से गणं-दूसरे गण में संकममाणे-सङ्क्रमण करते हुए सबले-शबल दोष होता है / ... मूलार्थ-छ: मास के अन्तर्गत ही एक गण से दूसरे गण में चले जाने से शबल दोष लगता है | - टीका-इस सूत्र में बताया गया है कि विद्याध्ययन आदि के विषय में साधु को क्या करना चाहिए / यदि अपने गण में युत्यादि से विशेष लाभ नहीं है तो दूसरे गण में जाकर उसका लाभ उठाना चाहिए इस विषय में सूत्रकार कहते हैं: किसी साधु के मन में विचार हुआ कि कर्म-निर्जरा के वास्ते अपूर्व-श्रुत का ग्रहण करना चाहिए किन्तु साथ ही श्रुत-विस्मृत का अनुसन्धान भी आवश्यक है तथा चारित्र में विशेष शुद्धि और महापुरुषों की सेवा से जन्म की सफलता भी होनी चाहिए / ऐसी स्थिति में वह अपने गण में उक्त सामग्री का अभाव देख ज्ञान, दर्शन और चारित्र्य की शुद्धि के लिये गुरु या वृद्ध की आज्ञा से एक गण से दूसरे गण में जा सकता है | किन्तु यदि उसे गण परिवर्तन का स्वभाव पड़ जाय और वह छ मास के अन्दर ही एक गण से दूसरे गण में जाने लगे तो उसे शबल दोष लगेगा; क्योंकि छ मास तक परिवर्तित-गण में उस की शुश्रूषा होती रहती है / उसके चित्त में विचार उत्पन्न हो सकता है कि गण