________________ ही अपने शरीर के प्रति भी ममत्व नहीं करता। श्रावक भी उसी लक्ष्य को आदर्श मानता है किन्तु लौकिक आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए मर्यादित सम्पत्ति रखता है। ___ वर्तमान मानव भौतिक विकास को अपना लक्ष्य मान रहा है। वह 'स्व' के लिए सम्पत्ति के स्थान पर सम्पत्ति के लिए 'स्व' को मानने लगा है। भौतिक आकांक्षाओं की पूर्ति के लिए समस्त आध्यात्मिक गुणों को तिलांजलि दे रहा है। परिणाम-स्वरूप तथाकथित विकास विभीषिका बन गया है। परिग्रह-परिमाण-व्रत इस बात की ओर संकेत करता है कि जीवन का लक्ष्य बाह्य सम्पत्ति नहीं है। इस व्रत का महत्व एक अन्य दृष्टि से भी है। संसार में सोना, चांदी, भूमि, अन्न, वस्त्रादि सम्पत्ति कितनी भी हो, पर वह अपरिमित नहीं है। यदि एक व्यक्ति उसका अधिक संचय करता है तो दूसरे के साथ संघर्ष होना अनिवार्य है। इसी आधार पर राजाओं और पूंजीपतियों में परस्पर चिरकाल से संघर्ष चले आ रहे हैं, जिनका भयंकर परिणाम साधारण जनता भोगती आ रही है। वर्तमान युग में राजाओं और व्यापारियों ने अपने-अपने संगठन बना लिए हैं और उन संगठनों में परस्पर प्रतिद्वन्द्विता चलती रहती है। यह सब अनर्गल लालसा और सम्पत्ति पर किसी प्रकार की मर्यादा न रखने का परिणाम है। इसी असन्तोष की प्रतिक्रिया के रूप में रूस ने राज्य-क्रान्ति की और सम्पत्ति पर वैयक्तिक अधिकार को समाप्त कर दिया। दूसरी ओर भूपतियों की सत्ता लालसा और उसके परिणाम-स्वरूप होने वाले भयंकर युद्धों को रोकने वाले लोकतन्त्री शासन-पद्धति प्रयोग में लाई गई फिर भी समस्याएं नहीं सुलझीं। जब तक व्यक्ति नहीं सुधरता संगठनों से अपेक्षित लाभ नहीं मिल सकता। क्योंकि संगठन व्यक्तियों के समूह का ही नाम है। परिग्रह-परिमाण व्रत वैयक्तिक जीवन पर अंकुश रखने के लिए कहता है। इसमें नीचे लिखें नौ प्रकार के परिग्रह की मर्यादा का विधान है 1. क्षेत्र—(खेत) अर्थात् उपजाऊ भूमि की मर्यादा / 2. वस्तु—मकान आदि। 3. हिरण्य-चांदी। 4. सुवर्ण सोना। 5. द्विपद दास, दासी। 6. चतुष्पद—गाय, भैंस, घोड़े आदि, पशु-धन / 7. धन–रुपये पैसे आदि सिक्के या नोट। 8. धान्य—अन्न, गेहूं, चावल आदि खाद्य-सामग्री। 6. कुप्य या गोप्य–तांबा, पीतल आदि अन्य धातुएं। कहीं-कहीं हिरण्य में सुवर्ण के अतिरिक्त शेष सब धातुएं ग्रहण की गई हैं और कुप्य या गोप्य धन का अर्थ किया है—हीरे, माणिक्य, मोती आदि रत्न / श्री उपासक दशां 1 / 58 / प्रस्तावना