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________________ देवानुप्रियो! तुम, मम कोलघरिएहिंतो वएहितो—मेरे पीहर के व्रजों में से, कल्लाकल्लिं दुवे-दुवे प्रतिदिन दो-दो, गोणपोयए उद्दवेह—बछड़े मारा करो, उद्दवित्ता ममं उवणेह—मारकर मेरे पास लाया करो। भावार्थ-मांस लोलुप रेवती ने पितृगृह के पुरुषों को बुलाकर कहा—हे देवानुप्रियो! तुम प्रतिदिन मेरे पीहर के व्रजों में से दो बछड़े मारकर लाया करो। मूलम् तए णं ते कोल-घरिया पुरिसा रेवईए गाहावइणीए ‘तहत्ति' एयमहें विणएणं पडिसुणंति, पडिसुणित्ता रेवईए गाहावइणीए कोलघरिएहितो वएहितो कल्ला-कल्लिं दुवे-दुवे गोण-पोयए वहेंति, वहित्ता रेवईए गाहावइणीए उवणेति // 243 // छाया ततः खलु ते कौलगृहिकाः पुरुषा रेवत्या गाथापल्याः ‘तथेति' एतमर्थं विनयेन प्रतिश्रृण्वन्ति, प्रतिश्रुत्य रेवत्या गाथापल्याः कौलगृहिकेभ्यो व्रजेभ्यः कल्याकल्यिं द्वौं-द्वौ गोपोतको नन्ति, हत्वा रेवत्यै गाथापल्यै उपनयन्ति। शब्दार्थ-तए णं ते कोलघरिया पुरिसा—इस पर पीहर के पुरुषों ने, रेवईए रेवती, गाहावइणीए तहत्ति एयमढें—गाथापत्नी की इस बात को 'ठीक है' इस प्रकार, विणएणं पडिसुणंति विनयपूर्वक स्वीकार किया, पडिसुणित्ता स्वीकार कर के, रेवईए गाहावइणीए रेवती गाथापली के, कोलघरिएहितो वएहितो—पीहर के गो-व्रजों में से, कल्ला-कल्लिं प्रतिदिन, दुवे-दुवे गोणपोयए वहेंति—दो बछड़े मारने लगे, वहित्ता—मारकर के, रेवईए गाहावइणीए उवणेति-रेवती गाथापत्नी को पहुंचाने लगे। भावार्थ दास पुरुषों ने रेवती के इस कथन को विनयपूर्वक स्वीकार किया और प्रतिदिन दो बछड़ों को मारकर लाने लगे। मूलम् तए णं सा रेवई गाहावइणी तेहिं गोण मंसेहिं सोल्लेहि य 4 सुरं च 6 आसाएमाणी 4 विहरइ॥ 244 // छाया ततः खलु सा रेवती गाथापली तैर्गोमांसैः शूल्यकैश्च 4 सुरञ्च 6 आस्वादयन्ती 4 विहरति / शब्दार्थ तए णं सा रेवई गाहावइणी—तदनन्तर वह रेवती गाथापली, तेहिं गोणमंसेहिं सोल्लेहि य ४–उन गोमांसों के शूलकों में, सुरं च ६–तथा मदिरा आदि में आसक्त होकर, आसाएमाणी 4 विहरइ–उनका स्वाद लेती हुई विचरने लगी। भावार्थ-रेवती गाथापत्नी उन (बछड़ों के) मांस को शूलक आदि के रूप में खाने और मदिरापान में आसक्त रहने लगी। 1 / 338 / महाशतक उपासक, अष्टम अध्ययन
SR No.004499
Book TitleUpasakdashang Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherAatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
Publication Year2003
Total Pages408
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_upasakdasha
File Size9 MB
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