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________________ जाणित्ता छ सवत्तीओ सत्थ-प्पओगेणं उद्दवेइ, उद्दवेत्ता छ सवत्तीओ विस-प्पओगेणं उद्दवेइ, उद्दवेत्ता तासिं दुवालसण्हं सवत्तीणं कोल-घरियं एगमेगं हिरण्ण-कोडिं, एगमेगं वयं सयमेव पडिवज्जइ, पडिवज्जित्ता महासयएणं समणोवासएणं सद्धिं उरालाई भोगभोगाई भुञ्जमाणी विहरइ // 236 // छाया ततः खलु सा रेवती गाथापली अन्यदा कदाचित्तासां द्वादशानां सपली-नामन्तरं ज्ञात्वा षट् सपत्नीः शस्त्रप्रयोगेणोपद्रवति, उपद्रुत्य षट् सपत्नीविषप्रयोगेणोपद्रवति, उपद्रुत्य तासां द्वादशानां सपलीनां कौलगृहिकामेकैकां हिरण्यकोटीमेकैकं व्रजं स्वयमेव प्रतिपद्यते, प्रतिपद्य महाशतकेन श्रमणोपासकेन सार्द्धमुदारान् भोग-भोगान् भुजाना विहरति / शब्दार्थ तए णं सा रेवई गाहावइणी तदनन्तर उस रेवती गाथापत्नी ने, अन्नया कयाइ–एक दिन, तासिं दुवालसण्हं सवत्तीणं—उन 12 सपलियों के, अंतरं जाणित्ता–छिद्रों को जानकर, छ सवत्तीओ सत्थ-प्पओगेणं उद्दवेइ–छः सपलियों को शस्त्र के प्रयोग से मार डाला, उद्दवेत्ता मारकर, छ सवत्तीओ विसप्पओगेणं उद्दवेइ छः सपलियों को विषप्रयोग द्वारा मार डाला, उद्दवेत्ता मारकर, तासिं दुवालसण्हं सवत्तीणं कोल-घरियं—उन 12 सपत्नियों की पितृ-कुल से प्राप्त, एगमेगं हिरण्ण-कोडिं एगमेगं वयं सयमेव पडिवज्जइ एक-२ करोड़ सुवर्ण मुद्राओं तथा एक 2 व्रज को अपने अधीन कर लिया, पडिवज्जिता ग्रहण कर के, महासयएणं समणोवासएणं सद्धिं श्रमणोपासक महाशतक के साथ, उरालाइं–मन माने, भोग भोगाइं भुंजमाणी विहरइ–भोगों को भोगने लगी। ___ भावार्थ रेवती गाथापत्नी ने अपनी बारह सपलियों की गुप्त बातें जान ली और उन में से छः को शस्त्र द्वारा और छः को विष देकर मार डाला। उनकी सुवर्ण मुद्राओं और व्रजों को अपने अधीन कर लिया तथा महाशतक के साथ मन-माने भोग भोगने लगी। रेवती की मांस-मदिरा लोलुपतामूलम् तए णं सा रेवई गाहावइणी मंस-लोलुया मंसेसु मुच्छिया, गिद्धा, गढिया, अज्झोववन्ना बहु-विहेहिं मंसेहि य, सोल्लेहि य, तलिएहि य भज्जिएहि य सुरं च महुं च मेरगं च मज्जं च सीधुं च पसन्नं च आसाएमाणी 4 विहरइ // 240 // छाया–ततः खलु सा रेवती गाथापली मांसलोलुपा मांसेषु मूर्छिता, गृद्धा, ग्रथिता, अध्युपपन्ना, बहुविधर्मीसैश्च, शूल्यकैश्च, तलितैश्च, भर्जितैश्च, सुरां च, मधु च, मैरेयं च, मद्यं च, सीधुञ्च प्रसन्नाञ्चाऽऽस्वादयन्ती 4 विहरति / श्री उपासक दशांग सूत्रम् / 336 / महाशतक उपासक, अष्टम अध्ययन
SR No.004499
Book TitleUpasakdashang Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherAatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
Publication Year2003
Total Pages408
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_upasakdasha
File Size9 MB
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