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________________ सिद्ध होता है कि जैन आगमों में अपरिवर्तनीयता की कोई भावना नहीं रही। इतना ही नहीं, जीतकल्प के नाम से भिन्न-भिन्न समय में आचार्यों द्वारा बनाई गई मर्यादाओं को भी आगमों में स्थान मिलता रहा है। श्रुतज्ञान के विषय में दूसरा प्रश्न है उसके प्रामाण्य का। मीमांसा व वेदान्तदर्शन वेद को स्वतः प्रमाण मानते हैं। उनमें कही हुई बातें इसलिए प्रमाण नहीं हैं कि उनका कहने वाला कोई निर्दोष विद्वान है बल्कि इसलिए प्रमाण हैं कि वे वेद की बातें हैं। जैन दर्शन भी आगमों को प्रमाण मानता है, किन्तु वह इसलिए कि उनका कहने वाला निर्दोष है। वह जैसा जानता है वैसा कहता है। साथ ही उसका ज्ञान भी ठीक है, क्योंकि अभी तक उसकी कोई बात झूठी नहीं उतरी। इस प्रकार जैनदर्शन और वैदिकदर्शनों के दृष्टिकोण में मौलिक भेद है। दोनों परम्परा का सम्मान करते हैं, किन्तु एक उसे सर्वोपरि सत्य मानता है और दूसरा उसे विशिष्ट ज्ञानी का अनुभव बताता है। दोनों के अनुसार उसमें अक्षर या मात्रा का भी परिवर्तन नहीं हो सकता। यहां तक कि उदात्त, अनुदात्त आदि स्वरों में भी परिवर्तन करने पर पाप माना गया है। ___ जैन दर्शन में एक और विशेषता है। वहां अर्धमागधी भाषा में लिखे गए मूल ग्रन्थों को ही आगम नहीं माना गया, मूल के साथ अर्थ को भी आगम माना गया है। आचारांग आदि आगमों के अनुवाद भी आगम ही हैं। प्रतिक्रमण में, जहां ज्ञान सम्बन्धी अतिचारों की चर्चा है, वहां तीन प्रकार का आगम बताया गया है—सूत्रागम, अर्थागम तथा तदुभयागम / - यहां यह प्रश्न होता है कि यदि जैन आगमों में परिवर्तन की गुंजाइश है तो "हीणक्खरं, अच्चक्खरं, पयहीणं, विणयहीणं, जोगहीणं, घोसहीणं" आदि में अक्षरों की न्यूनाधिकता तथा घोष परिवर्तन को दोष क्यों माना गया? इसका उत्तर स्पष्ट है, परिवर्तन की योग्यता होने पर भी प्रत्येक व्यक्ति को बिना जाने-बूझे यह अधिकार नहीं है। शुद्ध उच्चारण न करना या बिना समझे-बूझे मूल या अर्थ में परिवर्तन कर देना तो दोष ही है। साधारण बातचीत में भी उच्चारण, प्रासंगिकता, दबाव आदि का ध्यान रखा जाता है। इसकी उपेक्षा करने पर वाणी का प्रभाव कम हो जाता है। इसी दृष्टि से यदि आगमों में भी इन बातों को दोष बताया गया है तो यह उचित ही है। विचारों का परिमार्जन और भाषा का सौष्ठव तो प्रत्येक बात के लिए आवश्यक है। श्रुतज्ञान का व्यापक अर्थ है, साहित्य / वैदिक परम्परा में वेदों को अक्षुण्ण बनाए रखने के लिए विविध प्रयत्न किए गए। पदपाठ, घनपाठ, जटापाठ आदि के द्वारा वेदों के पाठ तथा उच्चारण को अब तक जो अक्षुण्ण रखा गया है, वह एक महान् आश्चर्य है। हजारों वर्षों से चली आ रही चीज को इस प्रकार स्थिर रखने का उदाहरण संसार में दूसरी जगह नहीं मिलता। किन्तु जैन परंपरा ने इस विषय में जिस विशाल हृदयता का परिचय दिया है, वह वैदिक परम्परा में नहीं है। अध्ययन की दृष्टि से देखा जाए तो जैन आचार्यों ने वैदिकदर्शन तथा अन्य साहित्य में जो रुचि दिखाई है वह तो वैदिक श्री उपासक दशांग सूत्रम् | 15 / प्रस्तावना
SR No.004499
Book TitleUpasakdashang Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherAatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
Publication Year2003
Total Pages408
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_upasakdasha
File Size9 MB
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