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________________ (52) श्री कल्पसूत्र-बालावबोध थाली रख कर भोजन कराये; तो मैं तुम्हारे घर जीमने आ सकता हूँ। राजा ने यह बात कबूल की। तापस को पारणे का आमंत्रण दे कर फिर राजा कार्तिक सेठ के पास जा कर बोला कि मेरा गुरु गैरिक तापस मेरे यहाँ भोजन के लिए आयेगा। उसे परोसने के लिए तुम आना। यह सुन कर सेठ ने कहा कि मैं सम्यक्त्व धारक हूँ, इसलिए मेरे लिए यह बात योग्य नहीं है; पर तुम्हारी बस्ती में रहता हूँ, इसलिए शास्त्र के 'रायाभिओगेणं' इस आगार के अनुसार तुम्हारी आज्ञा से उसे भोजन परोसँगा; पर मेरे भक्ति-भाव से उसे नहीं परोसँगा। फिर तापस भोजन करने गया, तब सेठ ने खीर परोसी। पर तापस ने भोजन नहीं किया। उसने कहा कि सेठ पीठ माँडे, तो मैं पात्र रख कर भोजन करूँ। फिर राजा के कहने से सेठ ने अविनत हो कर पीठ माँडी। सेठ ने हाथ की उँगली में अँगूठी पहनी थी। उसमें रही हुई जिनप्रतिमा को नमन किया। अब तापस सेठ की पीठ पर गरम खीर का पात्र रख कर भोजन करने लगा। भोजन करते करते उँगली से वह सेठ की नाक घिसता और मजाक में कहता कि देख! तू मेरे पाँव पड़ने नहीं आया। अब मैं तेरी नाक काटता हूँ। अब तुझे बार बार मेरे आगे झुकाता हूँ। ऐसे मजाक करते करते पारणा कर के तापस अपने स्थान पर गया। फिर गरम थाल सेठ की त्वचा से चिपक गया था, उसे बड़े कष्ट से राजा ने अलग करवाया। अब सेठ ने सोचा कि यदि मैंने पहले ही दीक्षा ले ली होती, तो आज ऐसी अवहेलना नहीं होती। ऐसा चिन्तन कर के वैराग्य प्राप्त कर सेठ ने एक हजार आठ वणिक पुत्रों के साथ श्री मुनिसुव्रतस्वामी के पास दीक्षा ग्रहण की। फिर द्वादशांगी का अध्ययन कर के बारह वर्ष तक चारित्र-पालन कर देहत्याग के पश्चात् वह सौधर्मेन्द्र हुआ। गैरिक तापस भी अज्ञान तप कर के मृत्यु के पश्चात् इन्द्र का वाहन ऐरावत हाथी बना। फिर वह देव हाथी का रूप बना कर इन्द्र के पास गया। जब इन्द्र उस पर सवार होने लगा, तब ऐरावत ने अवधिज्ञान से यह जान लिया कि अरे! यह तो कार्तिक सेठ है। फिर वह वहाँ से भागने लगा, पर इन्द्र उसे पकड़ कर उस पर सवार हो गया। तब शक्रेन्द्र को डराने के लिए हाथी ने दो रूप बनाये। यह देख कर इन्द्र ने भी दो रूप बनाये। फिर हाथी ने चार रूप किये; तब इन्द्र ने भी चार रूप किये। फिर इन्द्र ने अवधिज्ञान से पूर्वभव देख कर उस हाथी को तर्जना कर के चलाया और कहा कि अरे गैरिक ! अब तू कैसे छूट सकेगा? क्या तू पूर्वभव नहीं जानता? जब तूने मेरी पीठ पर थाल रख कर भोजन किया था? इसी कारण से तो अब तू मेरा वाहन बना है। बाँधे हुए कर्म भोगे बिना छुटकारा नहीं होता। यह
SR No.004498
Book TitleKalpsutra Balavbodh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYatindravijay, Jayantsensuri
PublisherRaj Rajendra Prakashan Trust
Publication Year1998
Total Pages484
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_kalpsutra
File Size10 MB
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