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________________ श्री कल्पसूत्र-बालावबोध (33) च्यवन किया। च्यवन कर के इसी जंबूद्वीप के भरतक्षेत्र के दक्षिण भरत में इसी अवसर्पिणी काल का यहाँ अवसर्पिणी किसे कहते हैं, सो बताते हैं- जिस काल में समय समय पर वस्तु की हानि होती है; उसे अवसर्पिणी काल कहते हैं और जिस काल में समय समय पर वस्तु की वृद्धि होती है; उसे उत्सर्पिणी काल कहते हैं। इस प्रत्येक काल के छह छह आरे हैं। उनका स्वरूप संक्षेप में इस प्रकार है पहला सुखमासुखमा नामकं आरा चार कोड़ाकोड़ी सागरोपम का होता है। उसमें मनुष्य और तिर्यंच की तीन पल्योपम की आयु होती है। उनका तीन कोस का देहमान होता है, उनके दो सौ छप्पन्न पसलियाँ होती हैं तथा वे अरहर (तूअर) की दाल जितना आहार तीन तीन दिन से करते हैं और उनचास दिन तक जन्मे हुए युगल का पालन करने के पश्चात् वे देवलोक जाते हैं। यह अवसर्पिणी का पहला आरा और उत्सर्पिणी का छठा आरा इनकी स्थिति-मर्यादां समान जानना। दूसरा सुखमा नामक आरा तीन कोडाकोड़ी सागरोपम का होता है। उसमें मनुष्य और तिर्यंच की आयु दो पल्योपम की होती है। उनका शरीर दो कोस का होता है। उनके एक सौ अट्ठाईस पसलियाँ होती हैं तथा वे दो दो दिन में बेर के जितना आहार करते हैं और चौसठ दिन तक संतानपालन कर के वे देवलोक जाते हैं। यह अवसर्पिणी का दूसरा आरा और उत्सर्पिणी का पाँचवाँ आरा इनकी स्थितिमर्यादा जानना। तीसरा सुखमादुखमा नामक आरा दो कोडाकोड़ी सागरोपम का होता है। उसमें युगलिक मनुष्य और तिर्यंच की आयु एक पल्योपम की होती है। उनका शरीर एक कोस का होता है। उनके चौसठ पसलियाँ होती हैं तथा वे एकान्तर से आँवले जितना आहार करते हैं और उनासी दिन तक सन्तान-पालन कर के मर कर देवलोक जाते हैं। यह अवसर्पिणी का तीसरा आरा और उत्सर्पिणी का चौथा आरा इनकी स्थिति- मर्यादा जानना। . चौथा दुखमा-सुखमा नामक आरा बयालीस हजार वर्ष न्यून एक
SR No.004498
Book TitleKalpsutra Balavbodh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYatindravijay, Jayantsensuri
PublisherRaj Rajendra Prakashan Trust
Publication Year1998
Total Pages484
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_kalpsutra
File Size10 MB
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