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________________ (22) श्री कल्पसूत्र-बालावबोध किसी तेली को जोतने के लिए दिया और उससे किराया ले कर वह दूध, चावल, शक्कर, घी और गोधूम ले आया। फिर खीर पका कर उसने अनेक ब्राह्मणों को आमंत्रण दिया। इतने में अपने पूर्वजन्म का मकान देख कर उस कुतिया को जातिस्मरण ज्ञान उत्पन्न हुआ। उसने उस दूध में एक साँप को ऊपर से जहर डालते देखा। तब उसने सोचा कि अज्ञान के कारण यदि ब्राह्मण यह खीर खायेंगे; तो उनकी मौत हो जायेगी। इससे बड़ा अनर्थ होगा। ब्रह्महत्या का पाप लगेगा तथा मेरा पुत्र और बहू भी मर जायेंगे। इतने में बहू वहाँ आ गयी। तब उस कुतिया ने बहू के देखते उस दूध में मुँह डाल कर उसे जूठा कर दिया। यह देख कर बहू को बहुत गुस्सा आया। उसने मूसल के प्रहार से उसकी कमर तोड़ दी, जिससे वह गौशाला में जा कर गिर गयी और तड़पने लगी। फिर ब्राह्मण ने दूसरा दूध मँगा कर खीर बनवायी और सब ब्राह्मणों को जीमा कर श्राद्ध का दिन मनाया। फिर थका हारा वह ब्राह्मण बाहर गौशाला में जा कर खटिया बिछा कर लेट गया। संध्या समय होने पर वह तेली भी बैल को वहाँ ला कर उसके स्थान पर बाँध गया। वह बैल दिनभर का भूखाप्यासा और थका-हारा था। इतने में कुलदेवी ने वहाँ आ कर उस बैल और कुतिया के शरीर में संक्रमण किया। तब कुतिया बैल से कहने लगी- आज श्राद्ध तो अपना था और भोजन ब्राह्मणों को मिला। इतना ही नहीं, इस पापिनी बहू ने मेरी कमर तोड़ डाली; इसलिए मुझे बड़ा दुःख हो रहा है। इस पर बैल ने कहा- अपना यह पापी पुत्र भी कुछ समझता नहीं है। इसने मुझे आज तेली के घर भेजा था। उसने पूरा दिन मुझे कोल्हू में चलाया और चारा-पानी दिये बिना मुझे यहाँ बाँध गया है। भूख के मारे मेरा बुरा हाल हो रहा है। उनकी यह बातचीत खाट पर लेटे हुए ब्राह्मण ने सुनी। इससे वह बड़ा दुःखी हुआ। उसने सोचा कि ये तो मेरे माता-पिता लगते हैं। ऐसा निश्चय कर के वह वहाँ से उठा। फिर उसने कुतिया को खीर का भोजन कराया और बैल को अच्छी तरह चारा-पानी आदि दिया। फिर अपने माता-पता की सद्गति के लिए वह परदेश गया और अनेक तीर्थो की उसने यात्रा की। संयोग से उसे कोई महान ऋषि मिले। उनसे उसने पूछा- महाराज! मेरा पिता मृत्यु के बाद बैल बना है और मेरी माता कुतिया बनी है। उनकी सद्गति कैसे होगी? तब ऋषि ने कहा- उन दोनों ने ऋषिपंचमी के दिन अप्रस्ताव से कामक्रीड़ा की थी और मैथुनसेवन किया था। उसका पाप लगने से उन्हें यह अवतार प्राप्त हुआ है। इसलिए अब तू ऋषिपंचमी
SR No.004498
Book TitleKalpsutra Balavbodh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYatindravijay, Jayantsensuri
PublisherRaj Rajendra Prakashan Trust
Publication Year1998
Total Pages484
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_kalpsutra
File Size10 MB
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