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________________ (434) श्री कल्पसूत्र-बालावबोध मित्र नागिल श्रावक ने कहा कि अरे! तू इस तरह मत मर। देवियों के लिए मरना योग्य नहीं है। तो भी वह नहीं माना। काष्ठ में जल कर भस्म हो कर मर कर हासाप्रहासा के ध्यान से वह उनका पतिदेव हुआ और उनके साथ भोग भोगने लगा। एक बार इन्द्र महाराज सब देव-देवियों सहित नन्दीश्वर द्वीप की यात्रा पर जाने के लिए तैयार हुए। हासा-प्रहासा के पतिदेव के नाम यह हुक्म आया कि तुम सब देवों के आगे मृदंग बजाते हुए चलो। हासा-प्रहासा ने उस देव के गले में मृदंग डाला। देव ने वह मृदंग उतार कर फेंक दिया, पर मृदंग उसके गले में पुनः आ गया। देव ने उसे पुनः फेंक दिया। इस तरह दो-तीन बार किया। तब हासा-प्रहासा ने कहा कि हमारे भरतार की यही मर्यादा है कि मृदंग बजाये बिना वह छूट ही नहीं सकता। लोक में ऐसी कहावत भी है कि हासा-प्रहासा का मृदंग गले में पड़ने पर बजाये ही छुट्टी। फिर वह विद्युन्माली देव हासा-प्रहासा सहित मृदंग बजाते हुए आगे चलने लगा और वहाँ महर्द्धिक देवों को देख कर अपने भव की निन्दा करने लगा। इतने में नागिल श्रावक का जीव जो बारहवें देवलोक में उत्पन्न हुआ था, वह भी साथ में आया और विद्युन्माली से कहने लगा कि क्या तुम मुझे पहचानते हो? देव ने उपयोग दे कर कहा कि हाँ, मित्र नागिल! तुमने मुझे बहुत रोका, पर मै तुच्छ भोग की खातिर मनुष्य जन्म गँवा कर ऐसे पुण्यहीन देवों में उत्पन्न हुआ हूँ। बताओ, अब मैं क्या करूँ? नागिल ने कहा कि तुम गोशीर्ष चन्दनमय श्री महावीरस्वामी की प्रतिमा बना कर उसकी पूजा करो, जिससे तुम्हें सम्यक्त्व की प्राप्ति हो। फिर विद्युन्माली ने श्री महावीरजी की प्रतिमा बना कर बहुत काल तक उसकी पूजा की। जब उसकी अल्पायु रही तब उस प्रतिमा को सन्दूक में रख कर, लोगों के जहाज समुद्र में अटके हुए थे, उन्हें निकाल कर और उन लोगों को सन्दूक सौंप कर कहा कि इस पेटी में श्री देवाधिदेव की प्रतिमा है। इसे तुम वीतभयपट्टन जा कर उदायी राजा को दे देना। जहाज के लोगों ने वह सन्दूक उदायी राजा की सभा में रख कर कहा कि यह श्री देवाधिदेव की प्रतिमा है और इसे किसी देव ने भेजा है। राजा ने जाना कि देवाधिदेव तो ब्रह्मा का नाम है, इसलिए वह ब्रह्मा का नाम ले कर खोलने लगा,पर वह सन्दूक नहीं खुली। इसी प्रकार विष्णु के नाम से भी नहीं खुली और महेश्वर . के नाम से भी नहीं खुली। राजा के भोजन का समय हो गया। तब राजा की रानी प्रभावती बोली कि देवाधिदेव श्री अरिहन्त वीतराग हों, तो यह सन्दूक खुल जाये।
SR No.004498
Book TitleKalpsutra Balavbodh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYatindravijay, Jayantsensuri
PublisherRaj Rajendra Prakashan Trust
Publication Year1998
Total Pages484
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_kalpsutra
File Size10 MB
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