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________________ श्री कल्पसूत्र-बालावबोध (395) ___ तथा हलवाई लोगों को कहलवा दिया कि तुम लोग शुद्ध आहारादिक मुनियों को वहोराना और उसका मूल्य राजभंडार से ले जाना, पर इस बात की खबर साधओं को मत पड़ने देना। फिर लोग भी इसी प्रकार साधुओं को आहारादिक देने लगे। साधु भी शुद्ध जान कर आहारादिक वहोरने लगे। इतने में आर्य महागिरिजी बोले कि हे शिष्यो ! ऐसा स्निग्ध सदोष आहार नित्य क्यों ले आते हो? तब शिष्यों ने कहा कि हम चौकसी तो नित्य करते हैं, पर हमें कुछ मालूम नहीं पड़ता। गुरु ने कहा कि अब अच्छी तरह चौकसी करना। फिर गोचरी के लिए घूमते समय लड़कों से पूछा कि तुम्हें नित्य लड्डु प्रमुख कहाँ से मिलते हैं? तब लड़कों ने कहा कि यह सब आपका प्रताप है। हम भी आपके प्रताप से लड्डू प्रमुख खाते हैं और आपको भी वहोराते हैं। राजा का भंडार अखूट है। . .. यह सुन कर शिष्यों ने आ कर आर्य महागिरिजी से सब बात कही। आर्य महागिरिजी ने राजद्रव्य जान कर आर्य सुहस्ती से कहा कि तुम आहार की चौकसी बराबर करते हो या नहीं? हमें राजद्रव्य मिलता है, वह कैसे? तब आर्य सुहस्ति बिना उपयोग के बोले कि राजद्रव्य तो सर्वत्र है। राजद्रव्य कहाँ नहीं है? आप ही बताइये। तब आर्य महागिरिजी बोले कि ऐसी शिथिलता की बात तुम क्यों करते हो? यदि तुम स्वयं ही ऐसा बोलोगे, तो फिर दोष का परिहार कैसे होगा? इसलिए अब तुम्हारे और हमारे सांभोगिता नहीं है ऐसा मानना। यह कह कर वे अन्यत्र विहार कर गये। ___आर्य महागिरि तीस वर्ष गृहस्थावास में, चालीस वर्ष व्रत में और तीस वर्ष युगप्रधान पद में एवं सर्वायु एक सौ वर्ष की भोग कर स्वर्गवासी हुए। यहाँ तक तो एक ही समाचारी और एक ही गच्छ था, परन्तु श्री आर्य सुहस्तिसूरि से सांभोगिकता भिन्न हुई। आर्य सुहस्ति तीस वर्ष गृहस्थावास में, चौबीस वर्ष व्रत पर्याय में और छियालीस वर्ष युगप्रधान पद में एवं एक सौ वर्ष की सर्व आयु भोग कर वीर निर्वाण से दो सौ इकावन वर्ष बाद देवलोक गये। 8. 9. श्री आर्य सुहस्ति के दो शिष्य हुए- एक सुस्थित और दूसरे
SR No.004498
Book TitleKalpsutra Balavbodh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYatindravijay, Jayantsensuri
PublisherRaj Rajendra Prakashan Trust
Publication Year1998
Total Pages484
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_kalpsutra
File Size10 MB
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