________________ (364) श्री कल्पसूत्र-बालावबोध वाले अधिक हो गये, तब उनकी परीक्षा कर के पहचान के लिए हर श्रावक के शरीर पर काकिणीरत्न से देव, गुरु और धर्मरूप तीन तत्त्वों की प्रतीक तीन रेखाएँ खींचीं। फिर उन श्रावक ब्राह्मणों के स्वाध्याय के लिए भरतजी ने श्री ऋषभदेवस्वामी की स्तुतिगर्भित 1. संसारदर्शन, 2. संस्थापन परामर्शन, 3. तत्त्वावबोध और 4. विद्याप्रबोध इन चार वेदों की रचना की। तब से ब्रह्मभोज और जनेऊ पहनाने की प्रथा चली। एक बार भरतराजा ने इन्द्र महाराज से पूछा कि आपका वास्तविक रूप कैसा है? तब इन्द्र ने उन्हें एक उँगली बताई। उसे महाज्वालामालाकुल देख कर भरत चमत्कृत हुए। इस कारण से प्रतिवर्ष इन्द्रमहोत्सव शुरु हुआ। भरत चक्रवर्ती का निर्वाण एक बार भगवान विहार करते-करते विनीता नगरी पहुँचे। भरतजी उन्हें वन्दन करने के लिए गये। भगवान ने अपनी देशना में संसार की अनित्यता प्रकट की। जीव कर्म के भार से तूंबा के दृष्टान्त से संसार में डूबता है। जैसे तूंबे पर मिट्टी का लेप कर के उसे पानी में छोड़ें तो वह नीचे चला जाता है, वैसे ही आठ कर्मों के बोझ से भारी हो कर जीव इस संसारसमुद्र में नीचे ही नीचे जाता है। भगवान की यह वाणी सुन कर भरतजी को वैराग्य हुआ। वे ज्ञानदशा में लयलीन हो गये। इस तरह अनुक्रम से एक बार भरत महाराजा आरीसाभवन में बैठे थे, तब अनित्यभावना में लीन होते हुए उन्हें केवलज्ञान उत्पन्न हुआ। फिर देहत्याग के पश्चात् वे मोक्ष गये। उनके पाट पर आदित्ययशा राजा हुए। उन्होंने सोने का जनेऊ कर के श्रावकों को जीमाया। उनके पाट पर महायशा राजा हुए। उन्होंने रौप्य का जनेऊ कर के श्रावकों को जीमाया। ऐसे आठ पाट तक श्रावकों को भोजन कराया गया। उनमें से कितने ही राजाओं ने सूत्र का जनेऊ कर के भी भोजन कराया है। फिर ये जनेऊ पहनने वाले सब ब्राह्मण कहलाये।