SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 162
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ श्री कल्पसूत्र-बालावबोध (129) सन्निवेश कहते हैं, ऐसे गाँवों में, सिंगोड़ा के आकार वाले मार्ग में अर्थात् तीन मार्ग जहाँ मिलते हैं, ऐसे स्थान में; चौक में तथा अनेक मार्ग जहाँ मिलते हैं ऐसे चच्चर मार्ग में, चौमुखे देवमन्दिरों में, महामार्ग-राजमार्ग में, देवकुल में, सभागृह में, जलस्थान में, बाग में, उद्यान में, वन में, वनखंड में एक ही जाति के वृक्ष जहाँ होते हैं, उसे वनखंड कहते हैं; स्मशान में, सूने मकान में, पर्वत की गुफाओं में, होम के स्थानों में, पर्वत की खुदी हुई शिलाओं में, बैठने के स्थान में तथा लोगों के बसने के स्थानों में रखा हुआ धन वहाँ से उठा कर सिद्धार्थ राजा के महल में डालने का आदेश इन्द्र महाराज ने दिया। तब तिरछे लोक में रहने वाले तिर्यग्नुंभक देवों ने वह सब धन ले जा कर सिद्धार्थ राजा के महल में डाल दिया। जिस रात में श्रमण भगवान श्री महावीरस्वामी ज्ञातकुल वाले सिद्धार्थ राजा के घर में आये, उस रात से सिद्धार्थ राजा सोना, रूपा, धन-धान्य, राज्य, देश, वाहन, कटक, पालकीप्रमुख, भंडार, धान्य-कोठार, पुर, अन्तःपुर- रानियों का परिवार, देशवासी लोग, यशवाद आदि से बहुत सम्पन्न हुए। उनकी बहुत वृद्धि हुई। यव, गेहूँ, शालि, व्रीहि, साठी-जुआर, कोद्रव, साँवाँ, कांग, राल, तिल, मूंग, उड़द, अलसी, चना, तिउडा, वाल, सिलिन्द, राजउड़द, उच्छू, मसूर, अरहर, कुलथ, धना और कलायरा इन चौबीस प्रकार के धान्य से तथा अन्य भी सोना, रूपा, मोती, मणि, दक्षिणावर्त शंख, राजवर्त्त, शिला, मूंगा, लालरत्न, पद्मराग आदि से समृद्ध हुए तथा प्रीति, सत्कार, बल, वाहन समुदाय आदि से भी बहुत बढ़े। इसलिए श्रमण भगवन्त श्री महावीरस्वामी के माता-पिता ने मन में यह विचार किया कि जिस दिन से हमारे यहाँ यह पुत्र कोख में आया है, उस दिन से हमारी सब प्रकार से सोना-रूपा प्रमुख वस्तुओं से वृद्धि हुई है, प्रीति-सत्कार आदि में भी बहुत वृद्धि हुई है, इसलिए हमारे यहाँ जब इस पुत्र का जन्म होगा, तब हम इसका नाम जैसे इसमें गुण हैं, वैसा ही देंगे। अर्थात् वृद्धिपने के गुण से उसका 'वर्द्धमान' नाम स्थापन करेंगे।
SR No.004498
Book TitleKalpsutra Balavbodh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYatindravijay, Jayantsensuri
PublisherRaj Rajendra Prakashan Trust
Publication Year1998
Total Pages484
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_kalpsutra
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy