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________________ श्री कल्पसूत्र-बालावबोध (77) जंबूद्वीप के भरतक्षेत्र में कौशांबी नगरी में सुमुख नामक राजा था। एक बार वसन्त ऋतु में वह राजा हाथी पर आरुढ हो कर नगरी के नजदीक वन में कीड़ा के लिए जा रहा था। मार्ग में वीरक कोली की वनमाला नामक भार्या जो अत्यन्त स्वरूपवती थी और अपने पति को अत्यन्त वल्लभ थी; उसे देख कर भीतर ही भीतर सराग दृष्टि से देखने से उसे प्रीतिभाव उत्पन्न हुआ। इस कारण राजा वहाँ से आगे नहीं बढ़ा। तब सुमति नामक प्रधान ने कहा कि हे स्वामी! समस्त स्वजन आ गये हैं, फिर भी आप आगे क्यों नहीं बढ़ते? यह सुन कर राजा अपने प्रधान की शर्म रख कर आगे वन में गया। पर शून्यचित्त हो जाने से और मन में केवल उस स्त्री का चिंतन करने से उसे कहीं भी चैन नहीं मिला। यह देख कर प्रधान ने पूछा कि महाराज ! आप ऐसे शून्यचित्त क्यों दीखते हैं? ऐसा बार-बार बहुत आग्रह कर पूछने पर राजा ने अपने मन की सारी बात प्रधान को बता दी। फिर प्रधान बोला कि आए बिल्कुल चिंता न करें। मैं आपको उस स्त्री से मिला दूंगा। . . . . फिर घर आ कर प्रधान ने आत्रेयिका नामक परिव्राजिका को बला कर सारी बात समझा कर वनमाला के पास भेजा। उसने भी वहाँ जा कर देखा तो वनमाला भी विह्वल हो कर मुख से उच्छवास छोड़ रही थी। वह कभी बैठती, कभी उठती, कभी गिरती। इस प्रकार उसे महाविरहिणी देख कर उससे कहा कि हे वत्से ! तू आज इतनी दुःखी क्यों दीख रही है? तेरा दुःख मुझे बता। मैं तुझे उस दुःख से पार उतारूँगी। यह सुन कर वनमाला ने अपने मन की गुप्त बात उसे कह दी। तब परिव्राजिका ने कहा कि मैं राजा के साथ तेरा मिलाप करवा दूंगी। तू बिलकुल चिन्ता मत कर। फिर वह परिव्राजिका प्रसन्न हो कर वहाँ से प्रधान के पास गयी और उसे सब बात बता दी। प्रधान ने राजा के पास जा कर सब वृत्तान्त कह सुनाया। इसके बाद दूसरे दिन प्रभात के समय परिव्राजिका वनमाला को राजा के पास ले गयी। राजा ने हर्षवन्त हो कर उसे अन्तःपुर में रखा और उसके साथ वह पंचविध विषयसुख भोगने लगा।
SR No.004498
Book TitleKalpsutra Balavbodh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYatindravijay, Jayantsensuri
PublisherRaj Rajendra Prakashan Trust
Publication Year1998
Total Pages484
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_kalpsutra
File Size10 MB
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