SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 538
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ टीका-इस सूत्र में शास्त्र का उपसंहार और उपदेश का फल बतलाया है। यथासाधु को अपनी आत्मा की बड़ी सावधानी से सदाकाल रक्षा करनी चाहिए; क्योंकि रक्षित की * हुई आत्मा ही शारीरिक और मानीसिक दुःखों से मुक्त होकर अनन्त निर्वाण सुख को प्राप्त होती है। इसके विपरीत जो आत्मा अरक्षित रहती है, वह एकेन्द्रिय आदि नानाविध जातियों के पक्ष की पथिक बनती है, वहाँ वह ताड़न-तर्जन आदि के अनेकानेक असह्य कल्पनातीत दुःख भोगती है। अब प्रश्न यह उत्पन्न होता है कि आत्मा की रक्षा किस प्रकार करनी चाहिए? इस प्रश्न का उत्तर देते हुए चूलिकाकार कहते हैं कि पाँचों इन्द्रियों के विकारों से निवृत्त होकर, समाधिस्थ हो जाने से आत्मा की रक्षा होती है अर्थात-तप, संयम द्वारा ही आत्मा सुरक्षित की जा सकती है और अजर अमर सर्वज्ञ-पद पा सकती है। "गुरु श्री अपने शिष्य से कहते हैं कि-हे वत्स ! जिस प्रकार मैंने इस द्वितीया चूलिका का भाव गुरुमुख से श्रवण किया था, उसी प्रकार वर्णन किया है, अपनी बुद्धि से कुछ भी नहीं कहा है।" द्वितीया चूलिका समाप्त। द्वितीया चूलिका] हिन्दीभाषाटीकासहितम् / [477
SR No.004497
Book TitleDashvaikalaik Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAatmaramji Maharaj, Shivmuni
PublisherAatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
Publication Year2003
Total Pages560
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_dashvaikalik
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy