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________________ इत्येवं सम्यगनुपश्यन् , अनागतं न प्रतिबंधं कुर्यात्॥१३॥ पदार्थान्वयः-परो-अन्य पुरुष मे-मेरी किं-क्या खलिअं-स्खलना पासइ-देखता है च-तथा अप्पा-मैं स्वयं अपने प्रमाद के प्रति किं-क्या देखता हूँ वा तथा अहं-मैं किं-क्या खलिअं-स्खलित न-नहीं विवजयामि-छोड़ता हूँ इच्चेव-इस प्रकार सम्म-सम्यक्तया अणुपासमाणो-विचार करता हुआ साधु अणागयं-अनागत काल के पडिबंध-प्रतिबंध को न कुज्जा-न करे अर्थात् भविष्य में कोई दोष न लगाए। मूलार्थ-दूसरे लोग मुझे किस प्रकार स्खलित अवस्था में देखते हैं। मैं अपने आत्मिक-कार्य सम्बन्धी प्रमाद को किस प्रकार देखता हूँ। मैं अपने इस स्खलित भाव को क्यों नहीं छोड़ता हूँ।इस प्रकार सम्यक्तया विचार करता हुआ मुनि, भविष्यकाल में किसी प्रकार का दोषात्मक प्रतिबन्ध न करे। टीका-इस गाथा में साधु को पुनरपि विचार करने के लिए कहा गया है। यथाआत्मार्थी मुनि शान्तचित्त से विचार करे कि, जब मैं किसी संयमसम्बन्धी नियम से स्खलित होता हूँ, तब मुझे स्वपक्ष और परपक्ष वाले सभी लोग किस घृणा की दृष्टि से देखते हैं तथा जब मैं प्रमाद के कारण आत्मिक पथ से स्खलित होता हूँ, तब मैं यह कार्य करना मुझे उचित नहीं है'- इस भाँति विचार कर अपने आत्मस्वरूप को किस प्रकार से देखता हूँ तथा मैं अपने इस दुष्ट प्रमाद के छोड़ने में किस कारण से असमर्थ हूँ, क्यों नहीं इसको छोड़ता। भाव यह है कि मुनि, उपर्युक्त रीति से सम्यक्तया अपने आत्म स्वरूप को देखता है, वह अनागत काल में किसी प्रकार का दोष नहीं लगा सकता है। वह जब कभी कोई भूल होती है तब शीघ्र ही उस भूल को स्मृति में लाकर भविष्य में ऐसी भूल न होने के लिए सावधान हो जाता है। स्खलित होना बुरा है, किन्तु इससे भी बुरा वह है, जो स्खलित होकर फिर सँभलने की चेष्टा नहीं करता। उत्थानिका- अब सूत्रकार साधु को सँभलने के लिए अश्व का दृष्टान्त देते हैं:जत्थेव पासे कइ दुप्पउत्तं, काएण वाया अदु माणसेणं। तत्थेव धीरो पडिसाहरिज्जा, ___ आइन्नओ खिप्पमिव क्खलीणं॥१४॥ यत्रैव पश्येत् क्वचिद् (कदा) दुष्प्रयुक्तं, कायेन वाचाऽथवा मानसेन। तत्रैव धीरः प्रतिसंहरेत्, आकीर्णः क्षिप्रमिव खलिनम्॥१४॥ पदार्थान्वयः-कइ-प्रतिलेखन प्रमुख क्रिया के किसी भी समय जत्थेव-जिस स्थान 474 ] दशवैकालिकसूत्रम् [ द्वितीया चूलिका
SR No.004497
Book TitleDashvaikalaik Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAatmaramji Maharaj, Shivmuni
PublisherAatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
Publication Year2003
Total Pages560
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_dashvaikalik
File Size12 MB
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