________________ यः पूर्वरात्रापररात्रकाले, संप्रेक्षते आत्मकमात्मकेन। किं मया कृतं किंच मम कृत्यशेषं, किं शक्यं न समाचरामि॥१२॥ पदार्थान्वयः- मे-मैंने किं-क्या किच्चं-करने योग्य कार्य कडं-किया है तथा मेमेरा किं-क्या किच्च-कृत्य सेस-शेष रहा है किं-क्या सक्कणिज-कार्य करने की मेरे में शक्ति है, जिसे मैं न समायरामि-आचरण नहीं करता हूँ, इस भाँति जो-जो साधु पुव्वरत्तावररत्तकालेरात्रि के प्रथम और चरम प्रहर में अप्पगं-अपनी आत्मा को अप्पएणं-अपनी आत्मा द्वारा ही संपेहए-सम्यक् प्रकार से देखता है, वही श्रेष्ठ है। मूलार्थ-जो साधु., रात्रि के प्रथम पहर और अन्तिम पहर में अपनी आत्मा को अपनी आत्मा द्वारा सम्यक् प्रकार से देखता है और विचार करता है कि मैंने क्या किया है, मुझे क्या करना शेष है, मुझ में किस कार्य को करने की शक्ति है, जिसे मैं नहीं कर रहा हूँवही सर्व शिरोमणि साधु होता है। टीका-इस सूत्र में आत्मदर्शी बनने के लक्षण वर्णन किए हैं / यथा- साधु को रात्रि के पहले पहरं और पिछले पहर में अपनी आत्मा को (कर्मभूत) अपनी आत्मा द्वारा ही (करणभूत) सम्यक् प्रकार से अर्थात् सूत्रोपयोगिनी-नीति से देखना चाहिए तथा सदैव एकान्त स्थान में यह विचार करना चाहिए कि मैंने क्या क्या शुभ कृत्य किए हैं तथा मुझे कौन-कौन से तपश्चरणादि करने बाकी हैं तथा वे कौन-कौन से कृत्य हैं, जिनके करने की मुझ में शक्ति तो है, परन्तु मैं प्रमाद के कारण उन्हें आचरण में नहीं ला रहा हूँ। कारण यह है कि ऐसा करने से भ्रम का परदा दूर होता है, स्वकर्तव्य का भान होता है, आलस्य के स्थान पर पुरुषार्थ का उत्थान होता है तथा पाप मल के दूर होने पर निजात्मा की शुद्धि होती है, जिससे अजर अमर मोक्षधाम में पूर्ण स्वराज्य की प्राप्ति होती है। सूत्र में 'किं मे कडं- किं मया कृत्यं' वाक्य में जो 'मे' यह षष्ठी विभक्ति दी है, वह 'मया' इस तृतीया के स्थान पर है। यह प्रयोग छान्दस है, अतः शुद्ध है। .. उत्थानिका- अब फिर उक्त विषय पर ही कहा जाता है:किं मे परो पासइ किं च अप्पा, किं वाऽहं खलिअंन विवज्जयामि। इच्चेव सम्मं अणुपासमाणो, अणागयं नो पडिबंध कुज्जा॥१३॥ किं मम परः पश्यति किं चात्मा, किं वाऽहं स्खलितं न विवर्जयामि। द्वितीया चूलिका] हिन्दीभाषाटीकासहितम् / [473