________________ ण या लभेज्जा निउणं सहायं, ___ गुणाहिअंवा गुणओ समं वा। इक्कोवि पावाइं विवजयंतो, विहरिज्ज कामेसु असज्जमाणो॥१०॥ न यदि लभेत निपुणं सहायं, . गुणाधिकं वा गुणतः समं वा। एकोऽपि पापानि विवर्जयन्, विहरेत् कामेषु असज्जमानः॥१०॥ पदार्थान्वयः-या-यदि गुणाहिअं-गुणों से अधिक वा-किंवा गुण ओसमं-गुणों से तुल्य वा-किंवा निउणं-संयम पालने में निपुण कोई सहायं-सहायक साधु नलभिजा-न मिले तो साधु पावाइं-पाप कर्मों को विवजयंतो-वर्जता हुआ कामेसु-काम भोगों में असजमाणोआसक्त न होता हुआ एगोवि-अकेला ही विहरिज्ज-विचरे। मूलार्थ-यदि अपने से गुणों में अधिक, गुणों में तुल्य एवं संयम क्रिया में निपुण कोई साधुन मिले तो मुनि, पापकर्मों का परित्याग करता हुआ एवं काम भोगों में आसक्त न होता हुआ अकेला ही विचरे; किन्तु शिथिलाचारी साधुओं के संग न रहे। ____टीका-यदि कभी कालदोष के माहात्म्य संयमानुष्ठान में कुशल, परलोक साधन में सहायक, अपने से ज्ञानादि गुणों में अधिक तथा गुणों में समान, कोई विशुद्ध मुनि न मिले तो मुनि को सहर्ष अकेला ही विचरना चाहिए; किन्तु भूल कर भी शिथिलाचारी और संक्लेशी मुनियों के साथ नहीं विचरना चाहिए, क्योंकि शिथिलाचारी मनुष्यों के साथ विचरने से चारित्र धर्म की हानि होती है और जन समाज में अपनी अप्रतीति होती है। अयोग्य साथी से सिवा हानि / के और कोई लाभ नहीं। पर अकेले विचरने वाले मुनियों से सूत्रकार एक बात का निश्चय (प्रतिज्ञा) कराते हैं, उसका पालन करना आवश्यक होगा। वह प्रतिज्ञा यह है कि अकेले विचरते समय पापकर्मों की ओर चित्त नहीं लगाना चाहिए। कठिन से कठिन संकट में भी पापकर्मों को हलाहल विष के समान समझें और स्पर्श न करे तथा कामभोगों में आसक्ति नहीं रखनी चाहिए। विषय भोग, कैसे ही क्यों न सुलभ और साग्रह निमंत्रित हों, तो भी उनकी ओर दृष्टि तक न करे। अकेलेपन में किसी की रोक-रूकावट नहीं रहती; इसी लिए यह प्रतिज्ञा कराई गई है। इस प्रकरण से अकेले विचर कर अपनी मनमानी करने वाले, स्वच्छन्द वृत्ति से साधु लाभ न उठाएँ। यहाँ सूत्रकार अकेले विचरने की आज्ञा नहीं दे रहे हैं बल्कि अपवाद बतला रहे हैं। अपवाद सदा के लिए नहीं, कुछ काल के लिए ही होता है और फिर इसमें तो अकेले विचरने का समय भी बहुत कठिन बतलाया गया है। ऐसा समय हर किसी को नहीं मिलता। .. उत्थानिका- अब विहार-काल का मान बतलाते हैं: द्वितीया चूलिका] हिन्दीभाषाटीकासहितम् / [471