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________________ पदार्थान्वयः- जस्स-जिस की अप्पा उ-आत्मा एवं-पूर्वोक्त प्रकार से निच्छिओदृढ़ हविंज-होती है, वह देह-शरीर को न-नहीं छोड़ता व-जिस प्रकार उर्वितिवाया-महावायु - सुदंसणंगिरि-मेरु पर्वत को चलित नहीं कर सकती, इसी प्रकार इंदिआ-इन्द्रियाँ भी तारिसं-मेरु के समान दृढ़ तं-पूर्वोक्त साधु को न पइलंति-प्रचलित नहीं कर सकतीं। ___मूलार्थ-जिस मुनि की आत्मा दृढ़ होती है, वह अवसर पड़ने पर शरीर का तो सहर्ष परित्याग कर देता है किन्तु धर्म शासन को नहीं छोड़ता। जिस प्रकार प्रलयकाल की महावायु पर्वतराज सुमेरु को नहीं गिरा सकती, उसी प्रकार चंचल इन्द्रियाँ भी उक्त मुनि को विचलित नहीं कर सकतीं। . टीका-जिस मुनि की आत्मा परम दृढ़ होती है, वह धर्म में विघ्नों के उपस्थित हो जाने पर अपने शरीर को तो छोड़ देगा; किन्तु स्वीकृत धर्म को कदापि नहीं छोड़ेगा। अतः एवंविध दृढ़ आत्मा वाले मुनि को चंचल इन्द्रियाँ उसी प्रकार धर्म पथ से चलायमान नहीं कर सकतीं, जिस प्रकार प्रलय काल की प्रचण्ड वायु, मेरु पर्वत को कंपायमान नहीं कर सकती। अतएव सिद्ध हुआ कि आत्मार्थी मुनि को योग्य है, कि आत्म-निश्चय कर लेने पर धर्म के विषय में दृढ़ता करे और विषय-वासनाओं से अपनी आत्मा को पृथक् रक्खे। इसी में अपना कल्याण है, दूसरे का कल्याण है और सारे संसार का कल्याण है। उत्थानिका- अब प्रस्तुत चूलिका का उपसंहार करते हैं:इच्चेव संपस्सिअबुद्धिमं नरो, आयं उवायं विविहं विआणिआ। काएण वाया अदु माणसेणं, . तिगुत्तिगुत्तो जिणवयणमहिट्ठिज्जासि॥१८॥ त्ति बेमि। इअरइवक्का पढमा चूला समत्तो। इत्येव संदृश्य बुद्धिमान्नरः, . आयमुपायं विविधं विज्ञाय। कायेन वाचाऽथवा मानसेन, त्रिगुप्तिगुप्तो जिनवचनमधितिष्ठेत्॥१८॥ इति ब्रवीमि। इति प्रथमा चूलिका समाप्तः। प्रथमा चूलिका] हिन्दीभाषाटीकासहितम् / [461 [461
SR No.004497
Book TitleDashvaikalaik Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAatmaramji Maharaj, Shivmuni
PublisherAatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
Publication Year2003
Total Pages560
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_dashvaikalik
File Size12 MB
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