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________________ नचेच्छरीरेण अनेन अपयास्यति, अपयास्यति जीवित पर्यायेण मे॥१६॥ पदार्थान्वयः- इमं-यह मे-मेरा दुक्खं-दुःख चिरं-चिरकाल तक न भविस्सइ-नहीं रहेगा; क्योंकि जंतुणो-जीव की भोगपिवास-भोगपिपासा असासया-अशाश्वती है च-यदि विषयतृष्णा इमेण-इस सरीरेण-शरीर से न अविस्सइ-न जाएगी तो मे-मेरे जीविअपजवेण-जीवन के अन्त में तो अविस्सई-अवश्य जाएगी ही। मूलार्थ-साधु को अरति के समय ऐसा विचार करना चाहिए कि यह मेरा अरति-जन्य दुःख अधिक दिनों तक नहीं ठहर सकेगा; क्योंकि जीव की विषय-वासना अशाश्वती है। यदि यह शरीर के रहते हुए नष्ट न होगी, तो अन्त में मरने पर तो अवश्य ही नष्ट हो जाएगी। टीका-यदि कभी कष्ट के कारण से संयम में अरति उत्पन्न हो जाए तो साधु को ऐसी विचारणा करनी चाहिए कि मुझे जो यह दुःख हुआ है, वह चिरकाल तक नहीं रहेगा कुछ ही दिनों में दूर हो जाएगा; क्योंकि दुःख और सुख समीप ही होते हैं, दूर नहीं। दूसरा जो यह रह रह (रुक रुक) कर भोग पिपासा जागृत होती है, जिसके कारण चित्त चलायमान हो जाता है, वह नियमतः अशाश्वती है। इसका अधिक प्रभाव यौवन अवस्था पर्यन्त ही रहता है। इसके पीछे तो यह अपने आप ही शिथिल पड़ जाती है। अतः मैं इसके फंदे में क्यों आऊँ। यदि थोडी-सी देर के लिए यह भी मान लिया जाए कि यह वद्धावस्था पर्यन्त (शरीर स्थिति तक) नहीं भी छोड़ेगी, तो फिर भी कोई बात नहीं। जब मृत्यु समय आएगा, तब तो यह अवश्य : अलग हो जाएगी। किसी भी अवस्था में नहीं रह सकेगी। अब ऊपर की बात का तत्त्व यह है कि जब शरीर ही अनित्य है, तो भोग वासना नित्य किस प्रकार हो सकती है। दुःख और सुख किस प्रकार स्थिर रह सकते हैं। अतः नश्वर भोगवासना एवं दुःख के कारण, अनंतकल्याणकारी संयम का किसी भी प्रकार से त्याग नहीं करना चाहिए। उत्थानिका- अब सूत्रकार, धर्म पर प्राण न्यौछावर (बलिदान) करने का उपदेश देते हैं:जस्सेवमप्पा उहविज निच्छिओ, चइज्ज देहं न हु धम्मसासणं। तं तारिसं नो पइलंति इंदिआ, उविंतिवाया व सुदंसणं गिरिं॥१७॥ यस्यैवमात्मा तु भवेत् निश्चितः, त्यजेत् देहं न तु धर्मशासनम्। तं तादृशं न प्रचालयंति इन्द्रियाणि, उत्पतद्वाता इव सुदर्शनं गिरिम्॥१७॥ .. 460] दशवकालिकसूत्रम् [ प्रथमा चूलिका
SR No.004497
Book TitleDashvaikalaik Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAatmaramji Maharaj, Shivmuni
PublisherAatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
Publication Year2003
Total Pages560
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_dashvaikalik
File Size12 MB
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