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________________ तहेव संखडिं नच्चा, किच्चं कजंत्ति नो वए। तेणगं वावि बज्झित्ति, सुतित्थित्ति अ आवगा॥३६॥ तथैव संखडिं ज्ञात्वा, कृत्यं कार्यमिति नो वदेत्। स्तेनक वाऽपि वध्य इति, सुतीर्था इति च आपगाः॥३६॥ . पदार्थान्वयः- तहेव-इसी प्रकार दयालु साधु को संखडिं-किसी के यहाँ जीमनवार (निमन्त्रण) नच्चा-जान कर किच्चं-यह पुण्य कार्य कज्जत्ति-करना ही योग्य है वावि-अथवा तेगणं-चोर को बज्झित्ति-यह मारने योग्य है अ-अथवा आवगा-ये नदियाँ सुतित्थित्ति-अच्छी तरह तैरने योग्य हैं इस प्रकार पापानुमोदी वचन नोवए-नहीं बोलने चाहिए। मूलार्थ- किसी गृहस्थ के यहाँ जीमनवार (निमंत्रण, जान कर 'यह पित्रादि निमित्त पुण्य कार्य गृहस्थ को करना ही योग्य है' तथा गृहीत चोर को देखकर 'यह चोर मारने ही योग्य है' जल पूर्ण सुन्दर नदी को देख कर 'इस नदी का तीर अच्छा है' अतः यह नदी अच्छी तरह से तैरने योग्य है, इस प्रकार विवेकी साधु को सावध भाषा नहीं बोलनी चाहिए। टीका- कोई साधु किसी ग्राम, नगरादि में जाए और वहाँ वह किसी गृहस्थ के घर में श्राद्ध, भोज आदि निमन्त्रण को होता हुआ देखे तब मुनि को योग्य है कि, वह निम्न प्रकार से न कहे-'यह भोज, जो पिता आदि की सांवत्सरिक श्राद्ध तिथि आदि के निमित्त किया है, वह गृहस्थ को अवश्यमेव करना उचित है। यह कार्य पुण्य की वृद्धि करने वाला है।' निषेध का कारण यह है कि, इस प्रकार अयोग्य भाषण करने से मिथ्यात्व की परि-वृद्धि होती है। इसी तरह किसी वध्यस्थान में ले जाते हुए पकड़े चोर को देख कर 'यह चोर महापापी है, यह जीएगा तो लोगों को बहुत तंग करेगा, ऐसे दुष्ट को तो मार देना ही ठीक है' ऐसा न कहे। क्यों कि, इससे तदनुमत होने से घातक दोषों का प्रसंग आता है। इसी प्रकार किसी जल से भरी हुई बहती नदी को देख कर 'इस नदी के तट बहुत अच्छे हैं, यह सुख पूर्वक तैर कर पार की जा सकती है, इसमें बहने का डर नहीं है। अतः इसमें जल क्रीड़ा भी सुख पूर्वक की जा सकती है' इत्यादि शब्द न कहे। क्योंकि इससे भी अधिकरण और विघातादि दोषों का प्रसंग उपस्थित हो जाता है। सूत्र में आया हुआ 'संखड़ि' शब्द यौगिक है। इसका यह अर्थ है कि जिस क्रिया के करने से जीवों की आयु-खण्डित होती है, उस क्रिया को 'संखड़ि' कहते हैं। इसलिए यह शब्द सभी हिंसाकारी क्रियाओं के लिए प्रयुक्त किया जा सकता है; परन्तु रूढि से यह शब्द केवल 'जीमनवार' (निमंत्रण) के अर्थ में ही व्यवहृत होता है अर्थात् 'संखड़ि' शब्द से अन्य अर्थ न लेकर केवल जीमनवार (निमंत्रण) का अर्थ ही लिया जाता है। उत्थानिका- अब सूत्रकार, संखड़ि आदि के विषय में कथन योग्य शब्दों का विधानात्मक उल्लेख करते हैं : संखडिं संखडिं बूआ, पणिअट्ठत्ति तेणगं। बहुसमाणि तित्थाणि, आवगाणं विआगरे॥३७॥ 290] हिन्दीभाषाटीकासहितम् - सप्तमाध्ययनम्
SR No.004497
Book TitleDashvaikalaik Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAatmaramji Maharaj, Shivmuni
PublisherAatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
Publication Year2003
Total Pages560
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_dashvaikalik
File Size12 MB
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