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________________ नहीं न आयाविज्जा-एक बार भी सुखाए नहीं न पयाविज्जा-बार बार सुखाए नहीं अन्नं- ओरों से न आमुसाविजा-एक बार भी स्पर्श कराए नहीं न संफुसाविज्जा-बार- बार स्पर्श कराए नहीं न आवीलाविज्जा-एक बार भी दबाए नहीं न पवीलाविज्जा-बार-बार दबाए नहीं न अक्खोडाविज्जा-एक बार झड़काए नहीं न पक्खोडाविज्जा-बार-बार झड़काए नहीं न आयाविज्जा-एक बार भी औरों से सुखवाए नहीं न पयाविज्जा- बार-बार औरों से सुखवाए नहीं अन्नं आमुसंतं वा-एक बार भी स्पर्श करने पर और की अथवा संफुसंतं वा- बार-बार स्पर्श करने पर और की अथवा आवीलंतं वा-एक बार भी दबाने पर और की अथवा पवीलंतं वा-बार-बार दबाने पर और की अथवा अक्खोडंतं वा-एक बार भी झड़कारने पर और की अथवा पक्खोडतं वा- बार-बार झड़कारने पर और की अथवा आयावंत वा-एक बार सुखाने पर और की अथवा पयावंतं वा-बार बार सुखाने पर और की न समणुजाणिज्जा-अनुमोदना करे नहीं जावज्जीवाए-जीवन पर्यन्त तिविहं-त्रिविध तिविहेणं-तीन प्रकार से अर्थात् मणेणंमन से वायाए-वचन से काएणं-काय से न करेमि-न करूँ न कारवेमि-न कराऊँ करंतंपिकरते हए भी अन्नं-औरों की न समणजाणामि-अनमोदना न करूँ भंते-हे भगवन ! तस्सउसका पडिक्कमामि-मैं प्रतिक्रमण करता हूँ निंदामि-निंदा करता हूँ गरिहामि-गर्हणा करता हूँ और अप्पाणं-आत्मा को वोसिरामि-पृथक् करता हूँ। मूलार्थ-वह भिक्षु अथवा भिक्षुणी, जो कि संयत हो, विरत हो, प्रति- हत हो और पाप-कर्मों को जिसने छोड़ दिया हो; वह दिन में, रात्रि में, अकेले-दुकेले, सोते-जागते; कूपादि के, ओस के, बर्फ के, धुंध के , गढ़ों के (ओलों के), तृणादि के और वर्षादि के पानी से यदि शरीर भीग जाए, अथवा वस्त्र भीग जाए अथवा शरीर गीला हो जाए अथवा वस्त्र गीला हो जाए, तो उनको एक बार भी, थोड़ा भी स्पर्श न करे अथवा बार-बार और अत्यधिक स्पर्श न करे , थोड़ा-सा भी और एक बार भी उसे मरोड़े नहीं, बार-बार और अत्यधिक मरोड़े नहीं, थोड़ा-सा भी और एक बार भी उसे झड़काए नहीं, बार-बार और अत्यधिक झड़काए नहीं, एक बार भी और थोड़ा-सा भी धूपादि में सुखाए नहीं, बार-बार और अत्यधिक सुखाए नहीं; सो उक्त क्रियाएँ अन्य से कराए नहीं और अन्य करने वालों की अनुमोदना भी करे नहीं। शेष अर्थ प्राग्वत् यहाँ भी लगा लेना चाहिए। टीका-सूत्र में 'उदउल्लं'-'उदकाम्' और 'ससिणिद्धं'-'सस्निग्धम्' जो दो पद दिए गए हैं, उनमें यह अन्तर है कि 'स्निग्ध' का अर्थ तो केवल 'गीला होना' है और 'उदकार्द्र' का अर्थ ऐसा गीला होना है कि 'जिसमें से जल की बूंदें टपक रही हों'। सूत्रमें 'आवीलिज्जा, पवीलिज्जा'-'आपीडयेत् , प्रपीडयेत् आदि पदों में जो 'आ' और 'प्र' उपसर्ग लगे हुए हैं, उनमें यह अन्तर है कि 'आ' उपसर्ग का अर्थ तो एक बार तथा थोड़ा' होता है और 'प्र' उपसर्ग का अर्थ 'बार-बार तथा बहुत' होता है। यहाँ यह शङ्का हो सकती है कि 'प्र' उपसर्ग का जो 'बार-बार तथा बहुत' अर्थ किया गया है, वह तो ठीक है, क्योंकि 'प्र' का अर्थ कोषकारों ने 'प्रकर्ष' किया है। 'बारबार तथा बहुत' ये दोनों ही अर्थ प्रकर्षार्थ के द्योतक ही हैं। लेकिन 'आ' उपसर्ग का जो 'एक बार तथा थोड़ा' अर्थ किया गया है, वह यहाँ कैसे घटे? क्योंकि 'आ' उपसर्ग 'अभिविधि और मर्यादा' अर्थों में आता है। इसका समाधान यह है कि एक बार तथा थोड़ा' जो अर्थ 66] . दशवैकालिकसूत्रम् [चतुर्थाध्ययनम्
SR No.004497
Book TitleDashvaikalaik Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAatmaramji Maharaj, Shivmuni
PublisherAatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
Publication Year2003
Total Pages560
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_dashvaikalik
File Size12 MB
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