________________ तुम एवमणा-ऽणहमणहिं च // 8 / 4 / 441 // गमेरेप्पिण्वेप्प्योरेलग् वा // 8 / 4 / 442 // तृनौऽणः // 8 / 4 / 443 // इवार्थे नं-नउ-नाइ-नावइ-जणि-जणवः // 444 // लिङ्गमतन्त्रम् // 8 / 4 / 445 // शौरसेनीवत् // 8 / 4 / 446 // व्यत्ययश्च // 8 / 4 / 447 // शेषं संस्कृतवत् सिद्धम् // 8 / 4 / 448 // इत्याचार्यश्रीहेमचन्द्रविरचिते सिद्धहेमचन्द्राभिधानशब्दानुशासने अष्टमस्याध्यायस्य चतुर्थः पाद: समाप्तः / तत्समाप्तौ च समाप्तोऽयमष्टमोऽध्यायः // आसीद्विशांपतिरमुद्रचतु:समुद्र मुद्राङ्कितक्षितिभरक्षमबाहुदण्डः / श्रीमूलराज इति दुर्धरवैरिकुम्मि कण्ठीरवः शुचिचुलुक्यकुलावतंसः / / 1 / / तस्यान्वये समजनि प्रबलप्रताप तिग्मद्युतिः क्षितिपतिर्जयसिंहदेवः / येन स्ववंशसवितर्यपरं सुधांशी, श्रीसिद्धराज इति नाम निजं व्यलेखि // 2 // (67)