SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 528
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 524 अभिज्ञानशाकुन्तलम्- [सप्तमो शापादसि प्रतिहता स्मृतिलोपरूक्षे, भर्तय॑पेततमसि प्रभुता तवैव / छाया न मूर्च्छति मलोपहतप्रसादे, शुद्धे तु दर्पणतले सुलभावकाशा // 32 // राजा-यथाऽह भगवान् / . शापादसीति / स्मृते रोधाद्रूक्षे = स्मृतिभ्रंशान्निरासके। रूक्षे = करे / भर्तरि = स्वपत्यौ। प्रतिहताऽसि = न त्वं पदं कृतवती / यद्वा--शापादेव पत्या त्वं प्रतिहताऽसि = निराकृताऽसि / पूर्व स्मृतिलोपेन रूक्षे,-इदानींन्तु अङ्गुलीयकदर्शनात्-अपेतं तमो यस्मात्तस्मिन् = हताज्ञानाऽन्धकारे प्रकृतिस्थे / भर्तरि = पत्यौ / तवैव-प्रभुता = स्वाम्यं, न तु सपत्नीनां / यतोहि मलेनोपहतः प्रसादो यस्य तस्मिन् = मलविलुप्तनैमल्ये दर्पणतले / छाया = प्रतिबिम्बं / न मूर्च्छति = न प्रकाशते। तु = पुनः / शुद्ध = निर्मले। दर्पणतले = दर्पणोदरे तु / छाया / सुलभोऽवकाशो यस्याः सा-सुलभावकाशा= स्पष्टा भाति / [ अनुप्रासः / दृष्टान्तः / हेतुश्चालङ्काराः / 'वसन्ततिलका वृत्तम्' ] // 32 // के सच्चे कारण को जान ही गई है। अतः अब इसके लिए शोक, या अपने पति पर इसके लिए कुछ भी क्रोध मत करना / देख दुर्वासा के शाप के कारण स्मृति के लुप्त हो जाने से ही पति के द्वारा तेरा परित्याग किया गया था। अब उसका वह स्मृतिभ्रंश रूपी अज्ञान दूर हो गया है / अतः अब तेरे पति पर तेरी प्रभुता पुनः अक्षुण्ण है। मैल से स्वच्छता का विनाश हो जाने से ही दर्पण में छाया नहीं पड़ती है, परन्तु यदि दर्पण पुनः स्वच्छ और निर्मल हो जाए, तो उसमें छाया पुनः पूर्ववत् पड़ने लगती है। अतः अब तेरा पति अज्ञान के विनाश से निर्मल हृदय हो गया है, उसमें तेरी प्रभुता पुनः वैसी ही अखण्डित हो जायगी // 32 // राजा-आप जो कहते हैं, वह बिलकुल ठीक है ( मैं इस शकुन्तला से पूर्ववत् ही अब प्रेम करता हूँ ) /
SR No.004487
Book TitleAbhigyan Shakuntalam Nam Natakam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahakavi Kalidas, Guruprasad Shastri
PublisherBhargav Pustakalay
Publication Year
Total Pages640
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy