________________ 487 ऽङ्कः] अभिनवराजलक्ष्मी भाषाटीका-विराजितम् _ ' अर्द्धपीतस्तनं मातुगमर्दक्लिष्टकेसरम् / प्रकीडितं सिंह शिशुं करेणैवाऽवकर्षति / // 14 // (ततः प्रविशति यथानिर्दिष्टकर्मा तापसीभ्यां सह बाल: ) / बाल:-जिम्ह ले सिंहसाबआ जिम्ह, दन्ताई दे गणइस्सं / [जम्भस्व रे सिंहशावक ! जम्भस्व, दन्तांस्ते गणयिष्यामि ] / प्रथमा-अविणीद ! किं णो अवञ्चणिव्विसेसाइं सत्ताई विप्पअरेसि ? / हन्त ! वढ्डइ विअ दे संरम्भो। हाणे क्खु इसिजणेण 'सव्वदमणो'त्ति किदणामहेओसि / अविनीत ! किं नोऽपत्यनिर्विशेषाणि सत्त्वानि विप्रकरोषि / सत्त्वं यस्यासा-अंबालसत्त्वः = युवेव महाबलः / अस्य-अग्रिमश्लोकनान्वयः / ___ अर्द्धपीतेति / मातुः = सिंह्याः / अर्द्ध पीतः स्तनो येनासौ, तम्-अर्द्धपीतस्तनं = किञ्चित्पीतस्तन्यम् / आमर्देन क्लिष्टाः केसरा यस्यासौ तम् = आकर्षणविसंष्ठुलविश्लथ केसरं / . सिंहशिशु = सिंहबालं / क्रीडितुं = स्वकीडनार्थे / करेण = हस्तेन / आकर्षति = आच्छिनत्ति / पाठान्तरे-बलात्कारेण = प्रसह्य / कर्षति = स्वाभिमुखं समाकर्षति / [ उदात्तं, स्वभावोक्तिरनुप्रासश्च ] // 14 // - यथानिर्दिष्टं-सिंहाकर्षणरूपं कर्म यस्याऽसो = यथानिर्दिष्ट कर्मा / जृम्भस्व = भी बड़ों की तरह प्रचण्ड पराक्रमी-यह बालक कौन है, और किसका है ? / जो कि-सिंह के बच्चे को उसकी माता सिंहिनी के स्तनों को पूरा 2 पीने से पहिले ही, अर्थात् आधे ही पीने पर भी, बीच में ही उसके केसर (आयल) के बालों को पकड़कर, खेलने के लिए जबरदस्ती हाथ से ही खींच रहा है ! // 54 // [सिंह के बच्चे को जबरदस्ती पकड़कर खींचते हुए, तथा दो तापसियों से मना किए जाते हुए, एक दीर्घकाय बालक का प्रवेश / बालक-अरे सिंह के बच्चे ! तूं अपना मुंह खोल / जल्दी मुंह खोल / मैं तेरे दाँत गिनूंगा। . पहिली तापसी-अरे अविनीत ! ( कहना न माननेवाले ! ) हमारे द्वारा 1 'बलात्कारेण कर्षति'।