________________ 444 अभिज्ञानशाकुन्तलम् [षष्ठो सानुमती-अपरिच्चत्ता दाणिं दे भविष्यति / [अपरित्यक्तेदानी ते भविष्यति / चतुरिका-( जनान्तिकम्- ) अज्जे ! एदं पत्तं पेसअन्तेण किं विआरिद अमच्चेण / पेक्ख दाव-भट्टिणो वाहजलप्पवाहो संवुनो। अधवा-ण एस सोअं बुद्धिपवयं पडिवज्जिस्सदि / ता मेहच्छण्णागारट्ठिदं णिव्वाणसमस्थं अज्जमाहव्वं गेण्हि आअच्छ / [(जनान्तिकम्-) आय्य ! एतत्पत्रं प्रेषयता किं विचारितममात्येन ? / प्रेक्षस्व तावत्-भर्तुर्बाष्पजलप्रवाहः संवृत्तः!। अथवा नैष शोकं बुद्धिपूर्वक पुत्रः' इति श्रुतेः। कुलस्य प्रतिष्ठा = वंशप्रतिष्ठाहेतुः / धर्मपत्नी = शकुन्तला / त्यक्ता= अवमानिता। नामेति निन्दायाम् / उचिते समये कृष्टा भूमिरिव गर्भाधानविधिना मया निहितगर्भाऽपि शकुन्तला मयाऽवधीरितेति महदनौचित्यं मम-इति भावः / [ काव्यलिङ्गम् / उपमा / उपजातिः ] // 27 // अपरित्यक्ता = लब्धा / जनान्तिकम् = त्रिपताक करेण अन्यानपवार्य / आर्य = हे प्रतिहारि ! / एतत्पत्रं = निःसन्तानमृतधनवृद्धिश्रेष्ठिवृत्तान्तपत्रं / बाष्पजलस्य अपने को ही मैंने गर्भरूप से स्थापित कर दिया था, और जो मेरे कुल की प्रतिष्ठा और वंश को बढ़ाने वाली थी, उस अपनी धर्मपत्नी ( शकुन्तला) का मैंने त्याग कर दिया है / अर्थात्-जिसको मेरे द्वारा गर्भ हो गया था, ऐसी अपनी धर्म पत्नी शकुन्तला को छोड़कर मैंने अपने वंश की प्रतिष्ठा और वंश की वृद्धि को ही नष्ट कर दिया है। [ मनुष्य अपनी स्त्री के पेट में वीर्य द्वारा स्वयं ही गर्भरूप होकर प्रविष्ट होता है। 'आत्मा वै जायते पुत्रः' 'गर्भो भूत्वा जायां प्रविशति' इत्यादि वचन इसमें प्रमाण हैं ] // 27 // सानुमती-अब शीघ्र ही वह आपसे अपरित्यक्ता हो जाएगी। अर्थात्शीघ्र ही उससे आपका मिलाप होगा। चतुरिका-( अलग से प्रतोहारी से-) आयें ! इस पत्र को भेजते हुए अमात्य (प्रधानमन्त्री जी) ने क्या विचार किया ! अर्थात्-कुछ भी विचार नहीं 1 'चतुरिका-अनेन सार्थवाहवृत्तान्तेन द्विगुणोद्वेगो भर्ता / एनमाश्वासयितुं मेघप्रतिच्छन्दादार्यमाधव्यं गृहीत्वाऽऽगच्छ' पा० /