________________ 434 अभिज्ञानशाकुन्तलम् [षष्ठो __ सानुमती-सव्वधा पमज्जिदं तुए पञ्चादेसदुक्खं पिअसहीए पञ्चक्खं ज्जेव सहिजणस्स। [सर्वथा प्रमार्जितं त्वया प्रत्यादेशदुःखं प्रियसख्याः, प्रत्यक्षमेव सखीजनस्य ] / [चतुरिका-प्रविश्य-] चतरिका-जेदु जेदु भट्टा / वत्तिआकरण्डअंगेह्निअ इदो अहं पत्थिदम्हि-'। [जयतु जयतु भर्ता। वर्तिकाकरण्डकं गृहात्वा इतोऽहं प्रस्थिताऽस्मि-']। विनितः / तु = पुन:, किञ्च / बाष्पः = नेत्राम्बु / एनां = प्रियां / चित्रगतामपि / द्रष्टुं न ददाति / एतेन अनवरतं मे बाष्पप्रसरः, अनिद्राऽरतिश्चेति सूचितम् / चित्रादिना मनोविनोदनमपि मे दैवं न सहते इति भावः / हेतर नुप्रासाश्चालङ्काराः // 25 // प्रत्यादेश एव दुःखं = निराकरणदुःखं / प्रमार्जितं = दूरीकृतं / प्रियसख्याः = शकुन्तलायाः। सखीजनस्य = वयस्याजनस्य / मम सानुमत्याः। प्रत्यक्षमेव = समक्षमेव। वर्तिकाकरण्डकं = वर्णकमञ्जूषाम् / (रंग का डिब्बा, पेटी)। इतः = अस्यामेव मेरी उस प्रिया का स्वप्न में भी कदाचित् समागम हो जाता, पर उसमें भी इस प्रजागर ने (निद्रा के अभाव ने, रात-दिन के जागरण ने ) विघ्न कर रखा है। अर्थात्-निद्रा आवे तब तो स्वप्न में प्रिया का कदाचित् दर्शन हो, पर मुझे तो निद्रा ही नहीं आती है, और मैं तो रातभर जागता ही रहता हूँ। अतः स्वप्न में भी प्रिया के दर्शन की आशा नहीं रही / और चित्र में ही-अपनी प्रिया को देखकर मैं कुछ सन्तोष करता, पर मेरी आँखों से बराबर गिरनेवाली यह अश्रुधारा मझे चित्र को भी देखने नहीं देती है। अतः मेरे इस दुःख का तो पारावार ही नहीं दीखता है। क्या करूँ ? // 25 // सानुमती-तुमने मेरी प्रिय सखी शकन्तला के प्रत्याख्यानजन्य दुःखको उसकी सखियों (हमारे) के सामने ही बिलकुल दूर कर दिया / अर्थात्-इस प्रकार सच्ची विरह दशा में तुम्हारे दुःख भोगने से, तुमने हमारे सामने ही शकन्तला के तिरस्कार का दुःख दूर कर दिया। [भाव-शकन्तला के विरह में तुमारी इस प्रकार दीनदशा को अपनी प्रिय सखी ( मेरे) द्वारा सुनकर अपने मन में तुमारा सच्चा प्रेम जानकर शकुन्तला अपने तिरस्कार को जरूर भूल जाएगी / [चतुरिका का प्रवेश] चतुरिका-महाराज की जय जयकार हो। मैं रंग और कूचियों का डिब्बा ( पेटी ) लेकर इधर ही आ रही थी, कि...